खिड़की की सलाखों से देखा, ज़मीन पर मैले-कुचैले चेीथड़ों में लिपटा वह
लड़का, शरीर कमज़ोर और आँखें धँसी हुई, उस पुराने कंबल से लिपटा होते हुए
भी कंबल के अनेक छोटे-बड़े झरोखों से अपने तन की जर्जर अवस्था का परिचय
देने में समर्थ था.
‘छुटकी’ खाने की थाली से निवाला लेकर सोचती रही, उस हम-उम्र अनजान साथी को
तकती रही जो अपनी सूनी आंखों से उसकी ओर देख रहा था. पल को तो उसे लगा कि
वह खिड़की के उस पार से उसे ही देख रहा है जैसे इस पार से वह उसे देख रही
थी. फिर उसे लगा कि वह उसे नहीं, उस निवाले को देख रहा है जो उसके हाथ में
था. छुटकी थाली लेकर खिड़की के पास खाना खाने के लिए आ बैठी थी . हर रोज़
की तरह माँ आज भी काम पर जाने से पहले थाली में उसका खाना परोस गई थी- एक
रोटी, थोड़ा आचार और कुछ नहीं…! मुँह का निवाला हाथ में था, उसे निगलना
ज़रूरी था ताकि पेट की आग ठंडी हो सके. पर सामने शिथिलता से ठंडा होता हुआ
तन ज़मीन पर लेटा-लेटा उसीके निवाले पर नज़र टिकाए हुए था. इस पार और उस
पार का फासला कम था, तय उसे करना था!
तय हुआ. हाथ का निवाला सलाखों के बीच से आगे बढ़ाया- अपने मुँह से हटाकर उस
मुंह तक ले आई. भूख और भीख का रिश्ता, जीवन और मौत का रिश्ता, ग़ुरबत से
ग़ुरबत का रिश्ता निभाने की रस्म उसने अदा कर दी.
ग़रीबी किस क़दर इंसान को पल में दानवीर बना देती है यह खुली आंखों से मैं
दूसरी खिड़की से देखती रही.