दाव पर द्रोपदी (लघुकथा)

कहते हैं चोर चोरी से जाए पर हेरा फेरी से न जाए. अनील भी कितने वादे करता, किए हुए वादे तोड़ता और जुआ घर पहुँच जाता, अपनी खोटी क़िस्मत को फिर आज़माने, जहाँ पर हार उसके हौसले को बार-बार मात करती रही.

एक दिन अपनी पत्नी को राज़दार बनाकर उसके सामने अपनी करतूतों का चिट्ठा खोलते हुए कहा- “अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है जो मैं दाव पर लगा सकूँ. क्या करूँ? क्या न करूँ? समझ में नहीं आता. कभी तो लगता है खुद को ही दाव पर रख दूँ.”

पत्नी समझदार और सलीकेदार थी, झट से बोली- “ आप तो उस खोटे सिक्के की तरह हो, वो जुआ की बाज़ार में कैश हो नहीं सकता ? अगर आपका ज़मीर आपको इज़ाज़त देता है तो आप मुझे ही दाव पर लगा दीजिए. इस बहाने आपके किसी काम तो आ सकूंगी.”

पत्नि को दाँव पर लगाने की बात सुनकर अनील शर्म से पानी- पानी हो गया. और इस कटाक्ष के वार से खुद को बचा न पाया. अलबता ज़िंदगी की राह पर सब कुछ हार जाने के बाद भी, जो कुछ बचा था उसे दाव पर हार जाने से बच गया.

देवी नागरानी

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