वह मुहल्ले की सारी औरतों के साथ गाँव के मंदिर में जाती पूजा-अर्चना करती,
श्रद्धाभाव से बरगद के पेड़ के साथ, भगवान की मूर्तियों को जल चढ ाती और
वापिस घर लौट आती.. घर आकर अगरबत्तियाँ जलाकर चुपचाप एक कोने में लगा देती।
फिर काम में लग जाती।
कई दिनों से इसी घटनाक्रम को देख उससे नहीं रहा गया और पूछ ही लिया-भीकू की
माँ-तू जाती तो गाँव के मंदिर में है, पूजा की थाल लेकर, फिर अगरबत्त्यिाँ
वापिस लाकर एक कोने में सुलगा देती है, वहीं क्यूं लगाकर नहीं आती?
''हुंह... मैं भी क्या उन लोगों की तरह मूर्ख हूँ जो वहाँ अगरबत्ती जला कर
आऊँ...हाँ..पूजा अर्चना तो कर आती हूँ,...हाँ अगरबत्तियाँ घर में जलाती हूँ
कम-से-कम कुछ समय तक तो अगरबत्तियों की महक से घर सुवासित रहता है।''
वह उसे अवाक् देखता रह गया।