रिश्तों की उल्झन


"मैं केटी को ले जा सकती हूँ?
सधी हुई आवाज़ कानों पर पड़ते ही सर उठाया.
देखा सामने सुंदर सी, तीखे नाक नक़्श, कटे हुए घुंघराले बाल जो हवा के रुख के साथ टहल रहे थे, ११-१२ साल की लड़की खड़ी थी.
"आपका नाम ?" मैंने अपरिचित का परिचय पाने की कोशिश की.
"मैं टीना हूँ, केटी की बहन " संक्षिप्त उत्तर के बाद वह चुप रही.
" हर रोज़ तों उसकी नानी उसे लेने आती है, क्या आज आपने उसे ले जाने के लिए साइन किया है? " मेरा अगला सवाल था.
"नहीं मुझे अचानक मेरे पिता का फ़ोन आया कि मुझे स्कूल से पिक करना है. मैं साइन करने के लिए तैयार हूँ."
मेरे मन में कुछ सवाल और खड़े हो गए. दो साल हो गए मुझे इसी क्लास रूम में काम करते. हर साल इतने सारे बचों के नातेदार, माता-पिटा, दादा-दादी, नाना-नानी, भाई-बहन बच्चों को छोड़ जाते हैं और वही फ़िर लेने भी आ जाते हैं, अपना-अपना नाम और बच्चे के साथ जुड़ा हुआ नाता लिखकर. आज के रजिस्टर में केटी के सामने उसकी नानी उसे छोड़कर गई और वही उसे पिक करने वाली थी, तों फ़िर टीना को मैं केटी कैसे सौंप सकती थी?
इस दौरान सब के सब बचे चले गए और मैं टीना की ओर मुड़ी जिसे मैंने कुछ देर रुकने के लिए कहा था. वह अपनी बहन के साथ बातें कर रही थी.
"आपकी नानी कहाँ है और आज क्यों नहीं आई.?" मेरा सवाल रहा फ़िर से!
"वो मेरी नहीं, केटी की नानी हैं. आज क्यों नहीं आई मुझे नहीं मालूम, डैडी का फ़ोन आया था और मैं यहाँ हूँ."
अब मेरी सोच में सिलवटें पड़ने लगी. ये कैसा रिश्ता है? वो केटी की नानी है पर टीना की नहीं! जब उल्झन से निकलने की राह नज़र नहीं आई तों फिर सवाल का सहारा लिया.
"तुम केटी को कहाँ ले जाओगी?" यह सवाल मेरी उल्झन से पैदा हुआ वरना यह पूछना ज़रूरी नहीं था. स्कूल के बाद बच्चा सौंपा जाता है, फ़िर ये सोचना नहीं पड़ता की वह कहाँ जाता है.
"इसके मम्मी -पापा के घर." टीना का छोटा सा उत्तर पाकर मैं फिर उलझ गई.
"और तुम कहाँ जाओगी?" मेरी उल्झन गहरी होती गयी.
"अपने घर" सरलता से उसने मुस्कराकर जवाब दिया. शायद वह मेरी परेशानी को समझने की कोशिश कर रही थी.
"तुम वहां क्यों नहीं जाओगी? " मेरा अगला उत्सुक सवाल था.
"क्योंकि मैं अपनी मम्मी के साथ रहती हूँ." कहकर वह चुप हो गई, पर मेरी मुश्किलों को आसान करने के अंदाज़ से कहा " केटी की मम्मी मेरी मम्मी नहीं है."
अब जाकर कुछ कुछ समझ में आया जब उसने कहा था "वह मेरी नहीं केटी की नानी है."
"तों क्या तुम्हारे पिता तुम्हारे साथ नहीं रहते?" मैंने बचकाना सवाल कर लिया.
अब शायद टीना पैनी नज़रों से मुझे छेदने लगी थी और शायाद जवाब देते देते वह कहीं न कहीं ख़ुद को कुरेद बैठी थी.
आवाज़ में कुछ मिले जुले भाव थे जिनसे झलक रहा था कुछ दर्द, कुछ खालीपन, कुछ नाउमीदी.
"नहीं, जब से केटी की माँ ने उनके साथ शादी की है, मैं अपनी मम्मी के पास रहती हूँ, और पापा केटी की मम्मी के साथ."
माथा कुछ चकराया यह जवाब सुनकर. कौन कहता है भावनाओं को ठेस नहीं लगती? कौन कहता है रिश्तों की ज़रूरत नहीं पड़ती? पर जो रिश्ते बेमतलब के हों तों उनका न होना ही बेहतर है, और इसी विचार धारा से यहाँ के अमरीका वासी बखूबी वाक़िफ़ हैं और उन्हें साफ़ सुथरा सच बताने में कोई तकलीफ नहीं होती.
दूसरी ओर हम हिन्दुस्तान के लोग, खासकर के वहाँ की औरतें पुरानी पीढ़ी की मर्यादाओं के चलन को अब भी ओढ़ कर चलती हैं. घर के भीतर के और बाहर के तौर तरीके जानती है. घर की चारदीवारी में घर की बात घुट कर सिसकियाँ भरती हैं, पर जुबान से वे उफ़ तक नहीं करती. कहीं तों ऐसा देखने और सुनने में आता है कि मर्द कहीं न कहीं बाहर के संसार से जुड़ जाता है, पर फ़िर भी औरत नातों का महत्व जानते हुए उन रिश्ते से जुड़ी रहती है, कभी तों बच्चों की खातिर, कभी आर्थिक आज़ादी न होने के कारण, कहीं अपने मनोबल के कारण भी जो उसको सभ्यता के स्तर पर एक ग्रहणी के नाम से जानता है.
यह कैसी दुविधा जनक स्थिति है कि एक मासूम बचपन से उसका वो अल्हड़पन, वो बचपन की शरारत करने की उमंग, वो खिलखिलाहट छीनकर, उसे समय के पहले ही रिश्तों के दाइरे, अपने माता -पिता के उस बदसूरत संबंध की पहचान से वाक़िफ़ करा दिया जाता है, जिनकी खुशियों की चौखट पर उनके चुलबुलाते बचपन को बलि चढ़ा दिया जाता है. जब नए रिश्ते बनते है तों पुराने कहीं न कहीं बिखरते ज़रूर है, इसमें कोई शक नहीं. अगर समाज में रहकर हम रिश्तों को धागों की तरह उलझने में पहल करते है तों आने वाली पीड़ियों की ज़िंदगी कैसे सरल और सुलझी हुई हो सकती है? जब रिश्तों की बुनियाद की नींव इतनी खोखली हो, जहाँ एक रिश्ता दूसरे रिश्ते को बेमतलब कर दे, तों उसे किस नाम से हम पुकार सकते हैं?
मैं अपनी सोच की दुनियाँ में खोई थी, इस बात से बेख़बर कि केटी और टीना अभी तक वहीं मौजूद हैं.
"मैम क्या मैं केटी को ले जा सकती हूँ?" टीना की इस आवाज़ ने मुझे जगा दिया.
"हाँ ! रजिस्टर में साइन करके उसे ले जा सकती हो." मेरे पास इस सोच की उलझन से निकलने का सिर्फ़ यही एक रास्ता था, पर बहुत देर तक, आने वाले कई दिनों तक ये उलझे रिश्ते मेरी सोच में ख़लल बनते रहे. स्वार्थ के सिंघासन पर बैठे आदम याद आते रहे और साथ में मासूमियत से मुस्कान छीनने वाले अपराधी चेहरे भी साफ़ नज़र आने लगे!!
देवी नागरानी
१२ नवंबर, २००९

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