दिल-दिमाग पर दस्तक देता “पांचवां मौसम”

panchwa mausam
साहित्य समाज का दर्पण है.सामाजिक सरोकार को एक दशा और दिशा देने के लिए क़लमकार,समाज की कुनीतियों, न्याय-अन्याय में छुपी विसंगतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से सहजता से उजागर करता है, जो जन-जीवन से प्रेरित होकर आकार ग्रहण करती है और अपनी रमणीयता से जनमानस को अभिभूत करती है.
कविता की भाषा के संबंध में किसी ने खूब लिखा है “कवि की भाषा भावों में रत्नों का प्रकाश भर देती है.” भावनात्मक सोच मानव के आसपास के वातावरण में हलचल मचाते हुए मस्तिष्क पर भी दस्तक दे जाती है. जी हां, ऐसी ही रचनात्मक उर्जा से जीवन और प्रकृति के सौंदर्य को शब्द-शिल्प में ढालकर, बहु-अनुभूतियों से सुशोभित शिल्पा सोनटके अपना काव्य संग्रह “पांचवां मौसम” लेकर आई है, जिसकी परिभाषा उनके अपने शब्दों में सुने और टटोलें ......
“यूं तो मौसम चार होते हैं, मगर एक पांचवां मौसम भी होता है, मन का.इस नये सुविधावादी दौर में, धुंधले हो चले सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और दिखावे के मानवीय रिश्तों से पैदा हुए हालातों से उपजे सुख-दुख का,जो हर किसी के लिए अहम होता है, मगर अक्सर बयां नहीं हो पाता, मन की मन में ही रह जात़ी हैं बातें.”
शिल्पा के काव्य में जो दुख और पीड़ा है वह एक व्यापक मानवीय करुणा के रुप में सामने आई है. ये वही तो बातें हैं, मानवीय रिश्तों की बातें, जो हर दिल से बतियाती हैं. सुने उनकी निःशब्द सोच की बातें जो शब्दों में सरगोशियान सर्गोशियाँ कर रहीं हैं ......
सहने को बहुत कुछ था मगर कुछ भी नहीं,
कहने को बहुत कुछ है मगर कुछ भी नहीं
काव्य का यह झरझर बहता झरना शिल्पा के अंर्तजगत में मुक्ति का एक एैसा अनुभव है जो चिंतन से वह भीतर को बाहर से जोड़ने मे सफल हुई है.
सर्द आहों को बदल दो दुआओं में
इससे बेहतर बंदगी और क्या होगी
इस आदान प्रदान के चलायमान संसार में कुछ लेना, पाना, फिर कुछ देना, तजना, सभ्यता, समाज-संस्कृति, धर्म, काव्य आदि भी मनुष्य और संसार के इसी चिरन्तन आदान-प्रदान के इतिहास है. अपने निजी अनुभवों को अभिव्यक्त करने की उसकी माहिरता उसके काव्य शिल्प और शब्द -शिल्प में पाई जाती है जिसका अर्थ शाहिद नदीम जी के इस शेर में समोहित है.....
तिरे खयालों की किरणों से जुलमतें कम हों
तिरे वकार से दुनिया में खुश्बुएं फैले....
उर्दू ज़ुबान की चाशनी सफ़र की लज़्ज़तों को और भी सुहाना बना देती है. शिल्पा को अनेक ज़ुबाने बोलने में दक्षता हासिल है, यह एक हैरत-अंगेज़ बात है. उसी फन का नमूना उसके इन शेरों मे देखें.....
उम्र भर ढहते रहे अरमां के वो रंगी महल
रेत -सी ताबीरें थी उड़कर हवा में रह गई

राह तकते ही रहे बस, ख्वाहिशों के हमसफ़र
मंज़िलें भी रही बेताबियों से बेखबर...
कुछ शिकायतों की सरगोशियां भी बेजुबान दीवारें सुन लेती हैं, डॉ.सुरेश कांते जी की ये काव्य-पक्तियां बेबसी की परवाज़ को अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ उड़ने की, और आगे बढ्ने की प्रेरणा बाक्ष रहीं हैं :
तितलियों को तितलाने दो,
जाने कब समय उनके पर कतर दे.
लगता है शब्द और अर्थ एकाकार होकर प्रकट हुए है.शिल्पा भी अपनी बात रखने में पीछे नहीं हटती.कहती हैः
क्या जरुरी है हम अपनी सफाई में कुछ कहें
न समझने वाले यूं भी नहीं समझते
विचार और भाषा का एक संतुलित मेल-मिलाप आकर्षित करता है, शब्दों की सरलता पाठक के मन को सराबोर करती है. रचना भले ही लेखक की निजी धरोहर होती है, पर जब वह जन-मानस के मन को छू लेती है, और अपनी-सी लगती है, तो वह जनमानस की हो जाती है. कोई दावा न करते हुए भी लेखिका कहती है :

´”मेरी रचनाएं हर उस दुःखी दिल के लिए राहत भरी दुआ मांगती है, खुश्बुओं की तरह, इंद्रधनुषी रंगों की तरह, सियाह बादलों में छिपी दामिनी की तरह, सहेजकर रख दिए गए साज़ों की रागिनी की तरह.” उसकी इस शिद्दत को देखकर मेरा मन भी कहना चाहता है :
याद की बज़्म सजी आज सितारों की तरह,
फिर से महसूस खलिश दिल ने की खारों की तरह... देवी नगरानी
रिश्ता हर इंसान का मानसिक और भावनात्मक आधार होता है. जब कोई नहीं होता तब पता चलता है कि उसका होना कितना अर्थपूर्ण है. इस वर्तमान काल में करुणा, संवेदना, भावुकता, अपनापन सब लुप्त हो गए हैं. रिश्ते -नातों की कड़ियां कमज़ोर पड़ गई हैं. गैरतों का बोलबाला है. अपनाइयत लकवाग्रस्त हो रही है.
गुरबतें अपनी चादर में पांव समेटे रहना चाहती हैं, शायद वह भी थरथरा रही है क्योंकि, घर की चारदीवारी के बाहर आतंक के माहौल की धुंध छाई हुई है, जहां दिन के उजालों में होता है हत्याकांड, बलात्कार, अपहरण, कुनीति रिश्तों की जालसाज़ी, मिलावट, बनावटी मुखौटों के पीछे अपनी शातिरता का रास रचाने में कामयाब हो रही है.यहां उनका कथन देखिए,तौलिये और टटोलिये :
अब रिश्ते निभाने की रस्में तक अदा की जाती नही,
व्यस्तता ने छीन ली है चाहतों की शिद्दतें.........
और फिर उनका कहना है कि -
रेत,मिट्टी,कंकड़,पत्थर / सारे साज़ो सामान मिलावटी
झूठ -मूठ प्यार अपनों का/ रिश्ते- नाते सब बनावटी
जमीं पर बसाया न जायेगा घर सपनों का

मन में घुटन जब हद से ज़ियादा बढ़ती है तो भड़ास गुबारों की तरह हवाओं में घुलमिल जाती है. नारी मन आज़ादी मांगता है अपने “पांचवें मौसम” को अभिव्यक्त करने की, अपनी छटपटाहट ज़ाहिर करने की, आइए उनके शब्दों में सुनते हैं---
औरत.....
यूं तो हर क्षेत्र में मर्दों के बराबर नज़र आती है औरत
अपनी आज़ादी की पताका फहराती जा रही है औरत, मगर
पुरुष प्रधान समाज के कोई भी बंध तोड़ पाती है औरत?
तन मन धन लगाकर दांव पर,हारी ही नज़र आती है औरत
आज़ भी मुफ़लिस और मोहताज़ ही नज़र आती है औरत.....!!
अंत में यही कहूंगी कि शिल्पा की रचनाधर्मिता के पग सफ़लता से आगे और आगे बढ़ते रहें. यह संग्रह उनकी लोकप्रियता का ध्योतक बने, इसी उम्मीद और शुभकामनाओं के साथ....

देवी नागरानी.
9-डी कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुंबई 400050। Ph: 9987028358
पुस्तक:पांचवां मौसम, लेखिका: शिल्पा सोनटके, पन्न्ने : 95, .मूल्य: रु.150. प्रकाशन: शिवानी प्रिंटर्स.

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