उत्तर-आधुनिक और भूमण्डलीकरण के इस युग में राग और संवेदना को दरकिनार
कर बौद्धिक, अमानुषिक और स्वार्थ-प्रेरित नितान्त व्यावसायिक प्रवृत्तियाँ
जन्म ले रही हैं तथा मनुष्य की भौगोलिक दूरी घटने के बावज़ूद उसकी आत्मिक और
भावनागत दूरी बढ़ती जा रही है। आदमी संवेदना से कम, बुद्धि से अधिक काम लेता
है; जिससे उसकी संवेदना छीजती जा रही है। जो एक वैश्विक संकट या संकट का
वैश्वीकरण है। बुद्धि तो जीवन के लिए आवश्यक है, किन्तु बुद्धिवाद की
भागाभाग में संवेदना का निर्ममता से कुचला जाना तथा मनुष्य का राग और
संवेदना से सतत शून्य होते जाना शुभ संकेत नहीं है। यह अतिशय स्वार्थ और
बौद्धिकता का ही प्रभाव है कि इतनी अमानवीयता बढ़ रही है तथा अनात्मीयता और
दुष्प्रवृत्तियों का बाज़ार गर्म होता जा रहा है। बावज़ूद इसके, इन
मानव-विरोधी तत्वों के विरोध में लोग सक्रिय नहीं हैं। इन्हीं भयानक और
त्रासद स्थितियों को भाँपकर महेंद्रभटनागर ने अपनी काव्य-कृति ‘राग-संवेदन’
में राग और संवेदना का एक मधुर, कोमल और जीवन्त संसार रचने की कोशिश की है।
गहन मानवीय मूल्यों को अन्तर्मन का अविभाज्य अंग बताते हुए व राग और
संवेदना की प्रासंगिकता सिद्ध करते हुए उसके बचाव की ज़ोरदार हिमायत की है।
‘राग-संवेदन’ की कविताओं में वैयक्तिक और सार्वभौम अनुभूतियों का संतुलन
है, संवेदना-विरोधी इस युग में अतिशय बुद्धिवाद और स्वार्थवृत्ति के
विरुद्ध एक भाववादी विद्रोह है; जो अत्यन्त प्रासंगिक है।
‘राग-संवेदन’ के पूर्व प्रकाशित महेंद्रभटनागर की ‘मृत्यु-बोध: जीवन-बोध’
कृति में मृत्यु से जुड़ी संवेदना तो है किन्तु वहाँ कवि मृत्यु-बोध से
आक्रान्त और बेचैन नहीं है। वहाँ मृत्यु का अहसास-भर है। मृत्यु की
नित्यता, अकाट्यता और सार्वभौमिकता का उद्घोष है। साथ ही, मृत्यु-संबंधी
भारतीय अवधारणा को प्रस्तुत करके जीवन के प्रति गहरा लगाव व्यक्त किया गया
है। मृत्यु संबंधी उपर्युक्त अवधारणा कवि को आस्थावान बनाती है और यह संदेश
देती है कि मृत्यु जीवन का अन्त न होकर एक नये जीवन का आरम्भ है। मृत्यु और
जीवन संबंधी इतनी अधिक कविताएँ एक स्थान पर सम्भवतः कहीं नहीं हैं।
सम्पूर्ण नयी कविता में भी मृत्यु संबंधी इतनी कविताएँ शायद ही होंगी। यहाँ
कवि मृत्यु को सहजता से अंगीकार करता हुआ जीवन को अपनी पूरी सामर्थ्य के
अनुरूप सम्पूर्णता में जीना चाहता है। कवि की मान्यता है कि जीवन और मृत्यु
में अद्भुत साम्य है, मृत्यु-भय जीवन-सौन्दर्य को सँवारता है। चूँकि मृत्यु
निश्चित और अटल है इसलिए कवि मृत्यु से न आशंकित होता है न आतंकित। वह
मृत्यु को चुनौती देता है कि उसे जब आना हो आये। अतः ‘मृत्यु-बोध:
जीवन-बोध’ की कविताओं में मृत्यु और जीवन का दर्शन है। कवि जीवन और मृत्यु
के प्रति एक गंभीर दार्शनिक मुद्रा अपनाता है — जहाँ न कोई उद्विग्नता है,
न हलचल।
प्रायः देखा जाता है कि जीवन के सांध्यकाल में आदमी मृत्यु से भयभीत होकर
अपना परलोक सुधारने हेतु वैराग्य को अंगीकार करता तथा जीवन-संघर्ष से पलायन
का रास्ता ढूँढ़ता है। किन्तु इक्यासी वसन्त पार करने के बाद भी,
महेंद्रभटनागर में जीवन के प्रति आकर्षण ख़त्म नहीं होता। वे उन नकारवादियों
और वैरागियों के समक्ष एक चुनौती रखते हैं जो संसार को क्षणभंगुर, नीरस और
सौन्दर्यविहीन मानते हैं। अतः ‘राग-संवेदन’ की कविताएँ , ‘मृत्यु-बोध:
जीवन-बोध की कविताओं में निहित कवि की संवेदना का विस्तार और उसे पुख़्ता
करने का प्रयास है। महेंद्रभटनागर इस बात के लिए चिन्तित नहीं हैं कि संसार
में उनकी भौतिक उपलब्धियाँ क्या है, उन्होंने कौन-से बड़े ओहदे प्राप्त किये
हैं, बल्कि उन्हें चिन्ता इस बात से है कि राग, संवेदना और सौन्दर्यचेतना
की हिफ़ाजत कैसे की जाए जो; आज ख़्त्म होती जा रही है।
‘राग-संवेदन’ कृति में मूलतः तीन तरह की कविताएँ हैं — वैयक्तिक अनुभूतियों
से युक्त, राग-बोध और प्रकृति संबंधी तथा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
चेतना संबंधी। कवि समय की लघुतम इकाई क्षण की भी उपेक्षा नहीं करता, उसका
महत्त्व घोषित करता है। इस दृष्टि से ‘एक लमहा’ कविता उल्लेख्य है जिसमें
यह स्थापित है कि एक क्षण यदि कभी ज़िन्दगी छीन लेता है, तो कभी एक सम्पूर्ण
इतिहास भी रच डालता है; इसलिए कवि प्रत्येक क्षण को सम्पूर्ण रूप में जीकर
उसका सदुपयोग करना चाहता है। यह जीवन के प्रति एक सहज आकर्षण का साक्ष्य
देता
है :
.
हर लमहा / अपना गूढ़ अर्थ रखता है,
अपना एक मुकम्मिल इतिहास सिरजता है
बार-बार बजता है!
इसलिए ज़रूरी है —
हर लमहे को भरपूर जियो
जब-तक, कर दे न तुम्हारी सत्ता को चूर-चूर वह!
.
‘राग-संवेदन’ कृति में प्रिया को सम्बोधित ‘राग-संवेदन — 2’, ‘वरदान’,
‘स्मृति’, ‘बहाना’, ‘दूरवर्ती से’ जैसी कविताएँ हैं; जिनकी अन्तर्वस्तु में
कवि की एकदम निजी, आत्मगत और गोपनीय कही जानेवाली अतीत की मधुर स्मृतियाँ
हैं। वहाँ प्रिया से एकाग्र मधुर संवाद हैं। कहीं प्रिया का रूठना, कहीं
उसके सांत्वना-बोल, कहीं उसका प्यार; जो अब-तक स्मृतियों में दर्ज़ था, शब्द
बनकर फूट पड़े हैं। ‘वरदान’ कविता का यह अंश: ‘याद आता है / तुम्हारा प्यार’
नागार्जुन की ‘याद आता तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल’ से भावसाम्य रखता है।
वास्तव में नितान्त एकान्त समय में प्रिया से जुड़ी अनुभूतियाँ उन्हें अपार
आन्तरिक ऊर्जा देती है जिसे पा वह जीवन के प्रति आसक्त होकर, शेष जीवन
दोगुने उत्साह से सुख से जी लेने की तमन्ना प्रकट करता है। यहाँ प्रेम के
प्रति एक सकारात्मक और सर्जनात्मक दृष्टिकोण है। प्रेम-संवेदना सृष्टि के
प्रत्येक हृदय को एक दूसरे से जोड़ती है इसलिए कवि सृष्टि में प्रेम को
एकमात्र वरेण्य मानता है :
.
सृष्टि में वरेण्य‘
एकमात्र / स्नेह-प्यार भावना!
मनुष्य की / मनुष्य-लोक मध्य
सर्वजन-समष्टि मध्य, / राग-प्रीति भावना!
.
कहना न होगा कि विवेच्य कृति की सम्पूर्ण कविताओं का आधार प्रेम है।
प्रिया, प्रकृति, जीवन तथा सम्पूर्ण मानवता तक प्रेम का विस्तार है।
प्रेम-संवेदना को कवि ने व्यक्ति के साथ चेतनशील प्रकृति-जगत तक फैलाया है।
प्रकृति से कवि का अभिन्न नाता है, उसके साथ निरन्तर आत्मीय संवाद हैं।
प्रकृति से मनुष्य को अलग करना किसी यातना से कम नहीं; ख़ासकर एक संवेदनशील
मनुष्य के लिए। ‘आह्लाद’, ‘आसक्ति’, ‘मंत्रमुग्ध’, ‘हवा’, आदि
प्रकृति-चित्राण की कविताएँ हैं; जिनमें कहीं बदली का छाना, बिजली का
कौंधना, मिट्टी की सोंधी गंध का महकना है तो कहीं सीधी सरल चिड़िया कवि को
सोने से जगाती है, झींगुर-दादुर का संगीत गूँजता है और कहीं चमेली की सुवास
में कवि संसार और स्वयं को भूलकर मंत्रमुग्ध हो जाता है। कहीं हवा से
निवेदन है कि वह उनके तन और मन को जल के शीतल छींटों से भिगो दे। प्रकृति
के ये सौम्य और निश्छल रूप बड़े आकर्षक और मोहक हैं; जिनके साथ कवि एकात्म
होना चाहता है।
महेंद्रभटनागर प्रगतिशील आन्दोलन से भी गहरे रूप में जुड़े थे। विवेच्य कृति
में प्रगतिशील चेतना की अनेक कविताएँ उपलब्ध हैं। प्रगतिशील होने की पहली
शर्त है — इस दृश्य संसार को सत्य और यथार्थ मानना तथा उसके नश्वरता और
मिथ्यात्व के भ्रमजाल से मुक्त होना। इसकी अनुगूँज प्रस्तुत कृति की
अधिकांश कविताओं में सुनायी देती है। इसके बाद प्रगतिशील कवि समाज के शोषण,
सामाजार्थिक विसंगतियों, व्यवस्था के कुप्रबन्ध के प्रति असहमति दिखाता है।
इसके दृष्टान्तस्वरूप ‘दो ध्रुव’, ‘समता-स्वप्न’ जैसी कविताएँ पेश की जा
सकती हैं। ‘दो ध्रुव’ कविता में समाज के शोषक और शोषित दो स्पष्ट वर्ग हैं
जो आपस में विभक्त तथा दो ध्रुवों की तरह दो विपरीत छोरों पर रहकर आपसी
एकता और समता के अभाव को सूचित करते हैं :
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हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल, / उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा साधन-सम्पन्न / प्रसन्न ....
दूसरी तरफ़ —
जन हैं — भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त,
त्रस्त, अनपढ़, दलित, असंगठित,
खेतों-गाँवों, / बाज़ारों-नगरों में
श्रमरत / शोषित / वंचित / शंकित!
.
आर्थिक और सामाजिक स्तर पर विभाजन इतना तीखा है कि कवि बेचैन हो उठता है।
इस वैषम्य को वह समता-मूल्य के प्रतिष्ठापन में बाधक मानता है। साम्यवादी
इमारत के ढह जाने का यह अर्थ नहीं कि साम्यवादी विचारधारा समाप्त हो गयी या
समता और समाजवाद के सपने छोड़ दिए जाएँ, या साम्यवाद शब्द के समक्ष मुँह
बिदका दिया जाए, बल्कि बदली हुई परिस्थितियों में उसे पुनर्व्याख्यायित
करके उसकी मानवीय और सर्जनात्मक भूमिका की सार्थकता सिद्ध करने की आवश्यकता
है। जब-तक स्वप्न नहीं होगा, महत्त्वाकांक्षा नहीं होगी तब-तक मनुष्य किसी
गंभीर लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहेगा। महेंद्रभटनागर असामनापूर्ण
क्रूर व्यवस्था की जगह समानतापूर्ण व्यवस्था के हिमायती हैं; जिसमें उनका
प्रगतिशील दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है। उनकी ‘समता-स्वप्न’ कविता उस भयानक
त्रासदी को प्रस्तुत करती है जिसमें श्रमरत आम आदमी अन्याय से लड़ता हुआ
अपने यौवन का हवन करता है, क़दम-क़दम पर छल, क्रूरता और चतुर्दिक शोषण का
शिकार बनता है, वह लाभान्वित नहीं हो पाता तथा तमाम विषमताएँ बढ़ती जाती
हैं। लेकिन समता-प्राप्ति को कवि असमाप्य, अजेय और मनुष्य का जन्मसिद्ध
अधिकार मानता है जो साम्यवाद के प्रति उसकी दृढ़ आस्था को दर्शाता है :
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परस्पर साम्यवादी भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी / न मानेगी पराभव!
लक्ष्य तक पहुँचे बिना होगी नहीं विचलित
न भटकेगा / हटेगा / एक क्षण अवरुद्ध हो लाचार
समता-राह से मानव!
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आज की जटिल ज़िन्दगी में आदमी कितना असुरक्षित है, यह चिन्ता का विषय है। आज
व्यक्ति के नाम या उपनाम (सरनेम) से प्रकट होने वाली जाति का अहसास-मात्र
उसकी मौत का कारण बन सकता है। आज गुण की पूजा का आदर्श ख़त्म हो गया है और
जाति की पूजा प्रधान हो गयी है। जातिगत और धर्मगत विभीषिका को लोग सदियों
से झेल रहे हैं। कवि उस तीव्र वेदना का अनुभव करता है :
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वंश हमारा / धर्म हमारा
जोड़ा जाता है क्यों नामों से? / उपनामों से?
कोई सहज बता दे —
इसाई हूँब् या मुस्लिम / या फिर हिन्दू हूँ ...
कहा करे कि ‘नाम है मेरा — महेंद्रभटनागर,
जिसमें न छिपा है वंश, न धर्म
न कोई मर्म!
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और अन्त में कवि सर्वज्ञ इलाही को ही कठघरे में खड़ा कर देता है :
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शिक्षित समाज में / सभ्य सुसंस्कृत समाज में
आदमी — सुरक्षित है कितना
आदमी — अरक्षित है कितना?
हे सर्वज्ञ इलाही, / दे सत्य गवाही!
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आज का मनुष्य शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत तो है किन्तु आम आदमी असुरक्षित
हैं; जो परिवेश की हिंस्रता का सूचक है। जिजीविषा और आस्था के बिना न जीना
सम्भव है और न ही किसी प्रकार का सृजन; किन्तु विडम्बना यह है कि आज के
संकटापन्न और निराशा के माहौल में मनुष्य की जिजीविषा भी समाप्त होती जा
रही है। जीवन में सफल होने और आगे बढ़ने हेतु जिजीविषा पहली शर्त है। इसके
अभाव में व्यक्ति युद्धभूमि में पहुँचने से पहले ही हथियार डालकर विरोधी
परिस्थितियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर देता है। यह जीवन के प्रति एक
निषेधात्मक दृष्टिकोण है। व्यक्ति की क्षीण होती जा रही जिजीविषा और
विश्वास को जिलाये रखने का एक सार्थक प्रयास है ‘आसक्ति’ कविता। प्यार और
जीवन के प्रति कवि का इतना गहरा लगाव है कि उनमें तमाम विद्रूपताओं के
बावज़ूद वह उन्हें अतिशय सुन्दर और आकर्षक लगते हैं। बिना किसी दुराव के
अकुंठ भाव से वह व्यक्त करता है :
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ऐसे प्यार से मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा इतनी मनोहर, छोड़ दूँ कैसे?
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पराजय जीवन का एक पड़ाव है; किन्तु उस पराजय से एक नयी ऊर्जा और अदम्य साहस
लेकर आगे बढ़ना एक संघर्षधर्मी योद्धा का लक्षण है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ
मनुष्य का निकष होती हैं जिनसे गुज़रकर वह अधिक सशक्त बनता है। इसलिए जहाँ
त्रिलोचन जीवन की बाधाओं के आभारी हैं; वहीं महेंद्रभटनागर का अनुभव है कि
कड़वे अनुभवों ने ही उन्हें परिपक्व बनाया है, अपने-परायों से मर्माहत होकर
ही वे जीवन का मर्म जान सके हैं। इसलिए ‘दृष्टि’ कविता में संघर्ष से
पराजित, दुर्भाग्य के शिकार असहायों को वे रोने को नहीं, खम ठोंककर
जीवन-संग्राम में उतरने की प्रेरणा देते हैं तथा पराजय को एक निकष और विजय
की भूमिका रचने वाली स्थिति के रूप में देखते हैं :
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पराजय को / विजय की सूचिका समझो,
अँधेरे को / सूरज के उदय की भूमिका समझो!
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सरल शब्दों में गूढ़ और गूढ़तम विचारों तथा भावों की अभिव्यक्ति, परिपक्व
अनुभवों और सृजन सातत्य का परिणाम है; जिसे ‘राग-संवेदन’ की कविताओं में
देखा जा सकता है। अधिकांश कविताओं में लय की रक्षा की पूरी कोशिश है: जो
निराला द्वारा निर्दिष्ट मुक्तछंद के मॉडेल हैं। ये कविताएँ बनावटीपन और
शिल्पगत जटिलता से मुक्त हैं।
इस प्रकार महेंद्रभटनागर का रचना-संसार बड़ा व्यापक है। विचार और
जीवन-दृष्टि को लेकर वहाँ कोई अस्पष्टता नहीं है। ‘राग-संवेदन’ शीर्षक ही
इस तथ्य का साक्ष्य देता है कि प्रेम और संवेदना को केन्द्र में रखकर, उसके
इर्द-गिर्द मँडराने वाले संकट तथा हिंस्र स्थितियों का जायज़ा लिया गया है।
कहना न होगा कि इन कविताओं में राग और संवेदना की पराजय और उसके अस्त होने
का तीव्र दंश मौज़ूद है। बौद्धिकता, व्यावसायिकता और स्वार्थ की झंझा ने
तमाम मावन-मूल्यों को तिरोहित कर दिया है। आज की सबसे बड़ी इस चुनौती से
महेंद्रभटनागर जूझते हैं। उनमें उन मूल्यों के बचाव की व्यग्रता है। छल,
धोखा, स्वार्थ और बौद्धिकता की चोट से आहत हृदय पर ये कविताएँ शीतल लेप की
तरह हैं। आज के विषम, विकट, क्रूर तथा आस्थारहित माहौल में ‘राग-संवेदन’ की
कविताएँ एक रागमय संसार की रचना करती हैं। प्रेम, संवेदना और जिजीविषा को
मानव-मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने को लेकर महेंद्रभटनागर याद
किये जाएंगे।
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