— डा. वीरेंद्र मोहन
प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष: हिन्दी-विभाग, सागर विश्वविद्यालयस
समकालीन कविता-परिदृश्य का एक लक्षित स्वभाव, घटित होते जीवन के साथ
उसकी सघन लयात्मकता है। पर, यह कविता मात्र जीवन के ब्योरों की कविता नहीं
है, एक विचार-कविता भी है और कविता के इस विचार का केन्द्र जीवन और उसके
सर्जक रूप हैं। कविता या कला विचारहीन हो सकती है, यह सोचना ही भयावह है।
कविता में मौज़ूद जीवन विचारहीन नहीं है, चाहे वह प्राणियों का जीवन हो या
पंचमहाभूतों का। यह जीवन व्यक्ति, समाज, राजनीति, अर्थनीति आदि के व्यापक
दायरे में अभिव्यक्त हो रहा है। समकालीन कविता पर विचार करते हुए प्रायः
उसकी काव्य-वस्तु और उस काव्य-वस्तु की मार्फ़त विचार-जगत को अधिक रेखांकित
किया गया। कविता का भाव-लोक पूरी तरह से प्रकट नहीं हो सका। आलोचना यहाँ
चूक गयी। आज कविता में इस भाव-लोक को खोजना महत्त्वपूर्ण है, जो शायद कविता
के आस्वाद में हमारी सहायता कर सके। कविता ने समकालीन जगत से जो
संवेदनात्मक तादात्म्य स्थापित किया है, वह ही उसकी सामाजिक संलग्नता और
भावबोधत्मक प्रतीति है। वस्तुतः वर्तमान की हिन्दी कविता जीवन से संवाद की
कविता है। कविता का यह जीवन व्यक्ति से समाज तक विस्तृत है। जीवन में, समाज
में घटित होती स्थितियों, क्रियाओं से उसका पाट व्यापक होता है और इसका
प्रत्येक कार्य-व्यापार इतिहास का सृजन करता है। कवि की चिन्ता मनुष्यता की
सर्जना की चिन्ता होती है। कवि महेंद्रभटनागर की कविता अपने व्यापक स्वभाव
में मनुष्यता की अभिव्यक्ति और उसकी हिफ़ाजत की कविता है। एक सुदीर्घ
रचना-यात्रा से गुज़र कर कवि महेंद्रभटनागर ने काव्य रचा ही नहीं, उसे जिया
भी है। ‘राग-संवेदन’ उनकी नवीनतम कविताओं का संकलन है, जिसका सफल
अंग्रेज़ी-रूपान्तर हिन्दी-प्रोफ़ेसर कवि डा. पी. आदेश्वर राव
(विशाखापटनम-आंध्रप्रदेश) ने किया है। पचास कविताओं की यह दुनिया कवि के
गहन अनुभव, चिन्तन और रचना-प्रक्रिया को व्यक्त करती है। इस कविता में
दुःख-कातरता का भाव है तो पाखण्डों, विकृतियों का विरोध भी।
कवि महेंद्रभटनागर मूलतः मानवीय भावनाओं के सर्जक रचनाकार हैं। छह दशक से
अधिक की अपनी रचना-यात्रा में उन्होंने अनेक काव्यान्दोलनों को देखा, पर
उनकी काव्य-प्रतिभा को किसी चैखटे में सीमित नहीं किया जा सकता। वस्तुतः
छायावादोत्तर कविता के समान्तर यात्रा करने वाली इस कविता में इन सबकी गूँज
और संकेत देखने को मिलते हैं। प्रगतिवादी या रूपवादी किस्म के सम्बोधन अब
किसी भी रचनाकार के लिए कोई मायने भले ही न रखते हों, पर सच यह भी है कि
रचना का परिपार्श्व इनसे प्रेरणाएँ भी प्राप्त करता है।
महेंद्रभटनागर की कविता अपने काल के साथ यात्रा करते हुए भी उसका अतिक्रमण
करती है। यहाँ व्यक्तिवादी आहटें और क्षणवाद के संकेत देखने को मिलेंगे तो
सामाजिक प्रश्नों पर देश-समाज की बदहाल होती स्थितियों पर आक्रोश और
विद्रोह के भाव भी देखने को मिलेंगे। ‘राग-सवेदन’ में कवि क्षण को जीता है
तो काल की सुदीर्घ यात्रा को अपनी रचना-यात्रा का पाथेय भी बनाता है। उसके
लिए मनुष्य का प्रेम सर्वोपरि है, हर्ष और विषाद की स्मृति भी जीवन का अंग
है :
आदमी के आदमी से प्रीति के सम्बन्ध
जीती-भोगती सह-राह के अनुबन्ध!
केवल याद आते हैं सदा!
कवि मानता है कि मनुष्य स्तृति-विहीन नहीं हो सकता। स्मृति उसके वर्तमान
से जुड़ी हुई कड़ी है।
महेंद्रभटनागर की कविता में प्रेम का संसार, ममत्व की दुनिया अनेक रूपों
में फैली है। कवि के लिए प्रेम आत्मीयता का अश्रुजल है। आत्मीयता के अपार,
अगाध, अति-विस्तृत, अनूठे प्यार के लिए कवि कहता है:
हृदय के घन-गहनतम तीर्थ से
इनकी उमड़ती है घटा,
और फिर ... जिस क्षण
उभरती चेहरे पर सत्त्व भावों की छटा —
हो उठते सजल दोनों नयन के कोर,
पोंछ लेता अंचरा का छोर!
आँसू कवि महेंद्रभटनागर की कविता में बार-बार आते हैं। ‘राग-संवेदन’ तथा
‘ममत्व’ कविताओं में तथा अन्यत्र भी आँसुओं के दृश्य-बिम्ब लगातार आते हैं।
आँसू खुशी के होते हैं और दुःख के भी। पर, कवि विपदा में आँसू बहाने की
अपेक्षा संघर्ष को स्वीकार करता है। उसके लिए आँसू आनन्द का उद्रेक हैं।
इसके लिए प्यार और आनन्द के आँसू ही वरेण्य है। वही जीवन का प्रेम है। यह
प्रेम ही कवि का अभीष्ट है :
तुम बजाओ साज़ दिल का / ज़िन्दगी का गीत मैं गाऊँ!
उम्र यों ढलती रहे,
उर में धड़कती साँस यह चलती रहे,
दोनों हृदय में स्नेह की बाती लहर बलती रहे,
जीवन्त प्राणों में परस्पर भावना-संवेदना पलती रहे,
तुम सुनाओ इक कहानी प्यार की मोहक
सुन जिसे मैं चैन से कुछ क्षण कि सो जाऊँ!
दर्द सारा भूलकर मधु-स्वप्न में बेफ़िक्र खो जाऊँ!
तुम बहाओ प्यार-जल की धार,
चरणों पर तुम्हारे स्वर्ग-वैभव मैं झुका लाऊँ!
यहाँ परस्परता का भाव, सहकार का भाव प्रेम के मूल में है। अकेला आदमी
प्रेम नहीं कर सकता। ‘वरदान’ कविता इसी प्रेम का विस्तार है। ‘आसक्ति’
कविता में कवि जीवन-जगत के प्रति अपने अनुराग को व्यक्त करता है। कवि का यह
प्रेम प्रकृति के विराट संसार में जन्म लेता है। यहाँ पक्षियों का कलरव है,
झींगुरों का संगीत है, अनन्त नीला आकाश है, चंद्रमा की ज्योत्स्ना है।
प्रेम के लिए और क्या चाहिए। कवि कहता हैः
ऐसे प्यार से मुँह मोड़ लूँ कैसे?
धरा — इतनी मनोहर छोड़ दूँ कैसे?
कवि चमेली की लता पर मुग्ध होता है। प्रकृति के उपादान उसे जीवन जीने की
कला सिखाते हैं। आनन्द और संघर्ष, कोमल और कठोर का पाठ पढ़ाते हैं। इसलिए
कवि पंचमहाभूतों की आराधना करता है। ‘हवा’ या ‘आसक्ति’ कविताएँ पंचमहाभूतों
की लीलाओं का ही विस्तार है। प्रकृति का यह संसार कवि को भीतर से जीने की
प्रेरणा देता है। वह जीवन के अभावों, कष्टों को भी स्वीकार करता है। कवि
महेंद्रभटनागर की कविता की विशेषता कवि का, मनुष्य का जीवन है। एक अर्थ में
यह आत्मपरक कविता भी है, पर व्यक्तिवादी कविता नहीं। कवि स्वयं के जीवन को
सामने रखकर, समाज के जीवन को सामने रखकर स्थितियों को प्रस्तुत करता है।
‘अतिचार’, ‘पूर्वाभास’, ‘सार-तत्त्व’, ‘निष्कर्ष’, ‘तुलना’, ‘अनुभूति’ आदि
कविताएँ ऐसी हैं।
कवि अतीत की ओर दृष्टिपात करता है। उसे अतीत बेतरतीब दिखायी देता है। वह
अतीतजीवी नहीं है। इसलिए वह वर्तमान के संघर्षों को स्वीकार करता है। वह
जीवन की निरन्तरता को स्वीकार करता है। क्षण के महत्त्व को भी स्वीकार करता
है, पर वह इस जीवन में अकेलेपन की पीड़ा सहकर भी अकेलापन स्वीकार नहीं करता।
अभिशापों से घिरे इस जीवन में, संसार में, जहाँ सर्वत्र शोक ही छाया हुआ
है, जहाँ हाहाकार मचा हो, सर्वत्र अनीति अत्याचार हो रहा हो, कवि चाहता है,
तब कोई तो इन घातों-प्रतिघातों में अपना कहने वाला हो:
तीव्र विद्युन्मय दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मभेदी चीख-आह-कराह
अतिदाह में जलती विध्वंसित ज़िन्दगी
आबद्ध कारागाह!
ऐसी तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि कोई तो हमें चाहे
भले / गाहे-ब-गाहे!
कवि का यह चाहना कोई साधरण चाहना नहीं है। संघर्ष के लिए साथ चलने का
आवाहन है।
कवि का अकेलापन उसे बार-बार कचोटता है। ‘चिर-वंचित’ कविता का अकेलापन
अभावों से भी जुड़ा है। जीवन के असह्य दुःख-दर्द और झंझावातों के कारण वह
उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। वह निरन्तर भटकता रहा। वह अभिशाप के ताप से जलता
रहा। रिसते घावों पर मरहम लगाने वाला, सहलाने वाला कोई नहीं मिला। पल-पल का
हिसाब यहाँ भी है। कवि की इस यातना को ‘जीवन्त’ कविता में देखा जा सकता है।
वह संसार में तमाम तरह के अवरोधों, समस्याओं, अभावों और तमाम तरह की
बेड़ियों से जकड़ा है, पर वह अपनी आग को बुझने नहीं देता। ‘अतिचार’ कविता
विश्वास के टूटने का बयान है। मर्यादा के उल्लंघन की कथा है। जहाँ प्यार का
अर्थ बदल जाता है। पाप-पुण्य की अवधारणाएँ बदल जाती हैं। जहाँ वासना जीवन
को झकझोर देती है। जहाँ संयम का मूल्य नहीं। जहाँ भी ऐसा होता है, आदमी
अपने को भूल जाता है। ‘पूर्वाभास’ में कवि अतीत को नहीं कुरेदना चाहता। वह
प्रेत-छाया से दूर भागना चाहता है। आज जीवन की भाग-दौड़ में आदमी बदहवास है।
लोग हताशा में आत्म-हत्या कर रहे हैं, पागल हो रहे हैं, अकारण हँसते-रोते
हैं। ऐसे में एक अवधूत के लिए जीवन-मृत्यु में कोई फ़र्क नहीं होता। वह
स्थितिप्रज्ञ हो जाता है। यह अवधूत जीवन के अभावों से उत्पन्न मस्ती का ही
एक रूपक है। सुदीर्घ साधना से प्राप्त अवस्था है। अवधूत होना सबके बस में
नहीं। कबीर अवधूत थे, तुलसी अवधूत को तैयार थे। कवि महेंद्रभटनागर का अपना
अवधूत है।
कवि महेंद्रभटनागर व्यापक अर्थों में प्रेम के कवि है। ‘वरदान’, ‘स्मृति’,
‘बहाना’, ‘दूरवर्ती से’, ‘बोध’ आदि कविताएँ प्रेम की नाना भूमियों की
कविताएँ हैं। कवि स्मृति की दुनिया में जाता है, प्रिय के रूठने-मनाने,
उसके सुख-आनन्द को याद करता है। ‘श्रेयस’ कविता में कवि इसी प्रेम को
वैश्विक धरातल पर देखता है। वह मनुष्य के प्रेम, दया, एकनिष्ठता जैसे
मूल्यों को याद करता है। वह नक़ली सहानुभूति और संवेदना को स्वीकार नहीं
करता। वह चाहता है कि मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम हो, मनुष्य मनुष्य के
आँसुओं को जाने, विपत्ति में पड़े हुए मनुष्य के लिए अपने सुख और धन का
त्याग करे। त्याग का मूल्य स्थापित करे। तभी संवेदना का कोई सामाजिक आशय हो
सकता है।
कवि देख रहा है कि समाज दो ध्रुवों में बँटता जा रहा है। पूरी मनुष्य जाति
समर्थ और लाचार के ध्रुवों में बँट गयी है। एक ओर वैभव का साम्राज्य है,
भोग-विलास है, सुख-सुविधएँ हैं:
हैं एक ओर —
भ्रष्ट राजनीतिक दल / उनके अनुयायी खल,
सुख-सुविधा-साधन-सम्पन्न / प्रसन्न।
धन-स्वर्ण से लबालब
आरामतलब / साहब और मुसाहब!
बँगलें हैं / चकले हैं
तलघर हैं / बंकर हैं,
भोग रहे हैं
जीवन की तरह-तरह की नेमत!
दूसरी तरफ़ —
भूखे-प्यासे दुर्बल, अभावग्रस्त ... त्रस्त,
अनपढ़, दलित असंगठित,
खेतों-गाँवों / बाज़ारों नगरों में
श्रमरत / शोषित, वंचित, शंकित!
समाज में बढ़ती असमानता को लेकर कवि चिन्तित है। पर , उसे विश्वास है कि
समता के सूत्र जुड़ेंगे। जो अभावों की आग में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं,
जिन्होंने अपनी जवान पीढ़ियों को हवन किया है, प्रत्येक युग में वही छले
जाते हैं, उनका शोषण होता है। समाज लगातार बँटता जा रहा है। अमीर-ग़रीब की
खाई और अधिक गहरी होती जा रही है। यह कवि का ही विश्वास है जो समता की
उम्मीद लगाए है, इतिहास भी इसका गवाह है :
विश्व का इतिहास साक्षी है —
परस्पर साम्यवाही भावना इंसान की
निष्क्रिय नहीं होगी,
न मानेगी पराभव!
लक्ष्य तक पहुँचे बिना होगी नहीं विचलित,
न भटकेगा / हटेगा
एक क्षण अवरुद्ध हो लाचार
समता-राह से मानव!
‘अपहर्ता’ धूर्तों, पाखण्डियों, फ़रेबी, कपटी चरित्रों का आख्यान है।
इसलिए कवि पराजित, दुर्भाग्यशाली, असहाय जनों को जगाता है। उद्बोधन करता है
— पराजय को जय में बदलने के लिए। कवि के लिए विश्वास और युग की भावना ही
सम्बल है। ‘परिवर्तन’ में कवि इसी साम्य-भाव का विस्तार देखता है :
सपना — जो देखा था
साकार हुआ!
अपने जीवन पर / अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
‘युगान्तर’ भी इसी स्वाधीन चेतना की अभिव्यक्ति है:
अब तो धरती अपनी, अपना आकाश है!
सूर्य उगा — लो फैला सर्वत्र प्रकाश है!
स्वाधीन रहेंगे सदा-सदा / पूरा विश्वास है!
कवि ऐसे ही सूर्य की प्रार्थना करता है। वह सूर्य से अपने बुझे हृदय में
जीवन की आग भरने की बात करता है। इसके लिए कवि समूह की भावना का आवाहन करता
है। यह एक क्रान्तिकारी विचार है। ‘सुखद’ इसी सामूहिकता की अभिव्यक्ति है।
इसके लिए कवि हवा का रुख़ बदलने की बात करता है। कवि कहता है कि यदि मनुष्य
को समता, प्रेम, सुख चाहिए तो उसे विवेक-शून्य अन्ध्-विश्वासों की कन्दराओं
से निकल कर नया इंसान बनना होगा। उसे युग के अनुरूप नया समाजशास्त्र रचना
होगा। साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता आदि के आडम्बरों को त्याग कर वैज्ञानिक
विचार-भूमि पर नयी उन्नत मानवीय संस्कृति को गढ़ना होगा। नये प्रकाश के साथ
नयी दिशा में बढ़ना होगा। इंसानी रिश्तों का निर्माण करना होगा। मनुष्यता को
ही सबसे बड़ी शक्ति मानना होगा। जीवन के यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती।
कवि आध्यात्मिक और दैवी चमत्कारों में
विश्वास नहीं करता। ‘पहल’ कविता इन्हीं भावों-विचारों को व्यक्त करती है।
कवि धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, जाति-पाँति के बंधनों को स्वीकार नहीं
करता। मनुष्यता के विकास के प्रमुख अवरोधक ये स्थितियाँ भी हैं। ‘स्वप्न’
कविता धर्म-जाति-सम्प्रदाय आदि के संकीर्ण दायरों का विरोध करती है। इन्हीं
सब कारणों से देश जल रहा है, समाज जल रहा है, मनुष्यता कराह रही है। इन्हीं
तमाम कारणों से आदमी असुरक्षित है, उसका जीना दूभर हो गया है। आज केवल
अंधकार छाया है। ‘खिलाड़ी’ कविता में कवि मनुष्यता को परिभाषित करता है।
श्रम की संस्कृति की स्थापना करता है। ‘सिफ़त’ कविता मनुष्य की जिजीविषा और
संघर्षशीलता तथा अपराजेयता की भावना को प्रस्तुत करती है:
यह आदमी है —
हर मुसीबत झेल लेता है
विरोधी आँधियों के दृढ़ प्रहारों से
विकट विपरीत धारों से
निडर बन खेल लेता है!
कवि वर्तमान जीवन-संषर्षों को देख रहा है। वह देख रहा है कि ज़िन्दगी
कंकड़ों का ढेर होती जा रही है। मनुष्य के अरमानों को चूर-चूर किया जा रहा
है। कवि चिन्तित है कि मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है। उसने अपना ईमान बेच
दिया है। वह अपमान सहता दूसरे के हाथ की कठपुतली बना है। वह अच्छे-बुरे की
पहचान भूल गया है। राजनीति का स्वरूप और चरित्र निरन्तर गन्दा होता जा रहा
है। कवि को हैरानी होती है। ‘हैरानी’ कविता इसी ओर संकेत करती है :
कितना ख़ुदगरज़ हो गया इंसान
बड़ा खुश है पाकर तनिक-सा लाभ — बेच कर ईमान!
चंद सिक्कों के लिए कर आया शैतान को मतदान!
नहीं मालूम 'ख़ुददार' का मतलब, गट-गट पी रहा अपमान!
रिझाने मंत्रियों को उनके सामने कठपुतली बना निष्प्राण,
अजनबी-सा दीखता — आदमी की खो चुका पहचान!
कवि महेंद्रभटनागर की कविता प्रकृति के निसर्गजात सौन्दर्य की कविता है।
‘आह्लाद’ में कवि ने सर्वथा टटके बिम्बों के द्वारा वर्षा के रूपक को
प्रस्तुत किया है। यहाँ मेघ और धरा का मिलन, वर्षा का नृत्य-संगीत, कजली का
गान आदि प्रकृति और हमारी लोकचेतना का अंकन करते हैं। महेंद्रभटनागर की
कविता में प्रकृति का उद्दाम, परिवर्तनशील और क्रांतिकारी रूप देखने को
मिलता है। प्रकृति का लीला-विधान एक ओर यदि उसके सौन्दर्य, उल्लास में
निहित है तो दूसरी ओर बाढ़ आदि की आपदाएँ भी उसी का एक सच है। किन्तु
प्राकृतिक प्रकोप मनुष्य के लिए बदहाली लेकर आते हैं। ‘विपत्ति-ग्रस्त’
कविता में प्रकृति का यह सच भी देखने को मिलता है, साथ ही यहाँ सम्प्रभु
वर्ग की हृदयहीनता और मनुष्यहीनता को भी देखा जा सकता है। वस्तुत: यहाँ
प्रकृति के उन्हीं रूपों को स्थान मिला है जो मानव जीवन के अटूट अंग हैं।
कवि महेंद्रभटनागर की मूल चेतना गीतात्मक है। यहाँ अनेक कविताएँ गीत और
नवगीत की आभा से दीप्त हैं। मुक्त-छंद की कविताओं में भी गीत की लय
प्रवाहित होती है। कवि जन-सामान्य को सम्बोधित करता है तो उसकी भाषा और
उसकी बनत भी भावों के अनुरूप हो जाती है। वह जब व्यवस्था के मनुष्य-विरोधी
चरित्र को उद्घाटित करता है तो उसकी भाषा में तल्खी आ जाती है। कवि
महेंद्रभटनागर की कविता रूढ़ अर्थों में प्रगतिवादी कविता नहीं है, वह
मनुष्य के गतिशील जीवन की पक्षधर है और जड़ मूल्यों की विरोधी कविता है। कह
सकते हैं कि यह कविता हमारी भावनाओं और मूल्यों की कविता है। यह हमारी
प्रेरणा की कविता भी है।
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डा. वीरेन्द्र मोहन, प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष: हिन्दी-विभाग, स-46 सागर विश्वविद्यालय-कैम्पस, सागर — 470 003