पलों के पैमाने पीते हुए जाने कितनी बार हम जीते हैं, कुछ देर ठहर कर
स्वांस लेते हैं और आगे बढ़ते चले जाते हैं. निराशाओं के दर पर आशा की माँग
लिए हर लम्हा और जीना चाहता है निरंतर-
एक पल के लिये जी लेने दो
एक पल ही तो बस अपना है
इस पल को मुझे छू लेने दो
कौन इस आशा से वंचित है, और हो भी तो क्यों? जीवन एक संकरी पगडंडी है जहाँ
से गुज़रना है हर पड़ाव के आगे और आगे, जो कुछ पाने की इच्छा है, उसके लिये
उम्र भी कम पड़ जाती है। जी हाँ ! कवियित्री जय वर्मा ने ज़िंदगी के पलों
को बड़ी ही नज़ाकत के साथ छुआ है, महसूस किया है और ब़खूबी कलम बंद किया
है। अपने आस-पास, अपने बीते कल, वर्तमान और भविष्य की कोमल भावनाओं को
काव्य सरिता में प्रवाहित किया है। उनकी सोच, तस्वुरात में अपने आपको शब्दो
के माध्यम से कितनी सरलता से अभिव्यक्त कर पाई हैं, उसी बानगी की नज़ाकत का
नमूना देखिये -
कल का प्रतिबिंब ही आज है बना
यह सच है कि वर्तमान में है जीना
आगे जय वर्मा जी अपने जीवन की यात्रा में हमें अपने साथ उसी दौर में बहा ले
जाती हैं जहाँ ज़िंदगी के अनेकों राज़ खुलते रह्ते हैं. उनकी रचनात्मक विधा
में नयापन है, तीखापन है, सोच में गहराई है-
मेहमान भी हम, मेज़बान भी हम
पल भर ठहर कर चले जायेंगे
आना-जाना जीवन का अटल चलन है इसी यर्थाथ से हमारा परिचय कई बार हुआ है और
होता रहेगा। चलना और रुकना जीवन के दो पहलू हैं। हम जिन्दगी सांसों में जी
लेते हैं, उम्र तो एक मात्र गिनती है। चलना जीवन की निशानी, रुकना मौत की
निशानी , इस विचार के पुख़्तगी उनकी रवानगी में देखिये-
हम काफ़िले हैं मुसाफ़िरों के
बस ऐसे ही चलते जायेंगे
पर कुछ नियम नियति की ओर से हमारे समाधान बन जाते हैं। उनका पालन करना
लाज़मी है, यही मानवता की जरुरत भी है और तकाज़ा भी.... राही है तू कर्म
का, अपनी मंजिल तलाश कर
तर्क मे क्या रखा है, अपना कर्म प्रधान कर’
क़दम- दर- क़दम अपने मन के आइने में जय वर्मा जी ख़ुद से मिलती हैं तो अपना
परिचय पाने को जैसे तड़प उठती हैं। एक अनबुझी तलाश सहरा की प्यास बनकर तन
की भटकन, मन की छ्टपटाहट को अभिव्यक्त करती हैं इन पंक्तियों में-
रूह में जब तक तू न हो शामिल
ख़ूबसूरत तस्वीर बन भी जाये तो क्या है
ज़िन्दगी के निर्वाह और निबाह की कड़ियों को जोड़ती हुई अपनी निशब्द सोच को
शब्दों के पैरहन से सजाती, काव्य सरिता से पाठक के मन को भिगोती हुई
कवियत्रि जय वर्मा अपने जुनून भरे मन के अथाह सागर में निरंतर उठती हलचल से
हमें रुब़रु कराती हैं -
जुनून है ये दिल की मौजों का
तड़पते और मचलते रहना
उनकी रचनाएं प्रशांत नदी की समतल भूमि में बहती धाराओं की तरह है, जहाँ
उनकी शब्दावली लहर की मानिंद मन के साहिल से टकराकर आती और जाती है। लगता
है आइना और अक्स निरंतर आमने-सामने हैं- पर अपनी सोच के फासल़ों में वे
जुदाई और मिलन के अहसासों की आहट को जानती और पहचानती हैं। सभी गिले शिकवे
भुलाकर ज़िंदगी की हक़ीक़तों को अपने आगोश में समोहित करते हुए वे कह उठती
हैं-
रंजिशें मिट गयीं मग़र तौर तरीक़ें हैं वही
क़शिश अब भी बाक़ी है, लेकिन दूरी है वही
उर्दू ज़ुबान की चाशनी सफ़र की लज्ज़तों को और सुहाना बना देती है, अपनी
सोच में अपने भावों को घोलकर शब्दों की सुर-सरिता में एक दृढ़ता की कड़ी को
जोड़ते हुए हमें अपने निश्चय से वाकिफ़ कराती हैं-
दृढ़ निश्चय किया है मन में / तो उलझन क्यों?
कुछ सवाल ऐसे दरपेश आते है जिनके ज़वाब ढूंढने की चेष्टा में कभी कभार मन
बुद्धि पर यह विश्वास करने को जी चाहता है कि ’कोई’ है जो हमारे जीवन की
ब़ागडौर संभाले हुए है, और हमारे अपने अस्तित्व की हर साँस में धड़कन बन कर
बस रहा है. जानकर भी अज्ञानता की व्यापक्ता का बोध उनके सवालों को हमसे
जोड़ रहा है-
सदियों से हम पूछ्ते आये हैं कि मसीहा कौन है
चली जा रही है पानी पर नाव पर मांझी कौन है
सुर-ताल का है संगम गीत में पर गीतकार कौन है
दिल की धड़कन के सुर ताल पर रक्स करती उनकी यह कविता ’कौन’ सुन्दर, सरल
शब्दों में जल-तरंग सी शैली में स्वच्छता, कोमलता, करुणा की धारा बनकर
निश्चल जल की तरह प्रवाहित हो रही है क्यों, कौन और कैसे, इन सवालों की
उलझी हुई गुत्थियों को सरलता से सुलझाकर, आगे हमें अटूट विश्वास के गलियारे
में लाकर खड़ा करती हैं, जहां निष्ठा प्रधान है, और इस उत्तम विश्वास के
पश्चात मन की कोई शंका समाधान नहीं पाना चाहतीः
"सूफ़ियाना बातें क्यों पुछो/ नेकी का नमूना/ख़ुदा के नज़ारों मे देखो"
जय वर्मा ने अपनी सोच की उड़ान के परों पर सवार होकर छोटी-छोटी कविताओं के
अन्तर्गत अनबुझे मसाइल हल बनाकर पेश किये हैं! सवाल ही ज़वाब बनकर सामने आ
जाते हैं. बचपन की मासूमियत क्या होती है? पेट की भूख क्या होती है? आग की
आंच क्या होती है? जलना-जलाना क्या होता है? इस दौर से गुज़रते हुए आशिक और
माशूक का एक अति प्रभावशाली बिंब उनके शब्दों में सुनें और महसूस करें- आग
की गर्मी और कैफ़ियत क्या जानो
शम्अ पर जलकर मिलता है क्या
परवानें बने ब़ग़ैर क्या जानो?
सवाल की शैली पर सोच भी पल दो पल ठिठक जाती है। दुश्वारियों के बीच से
आसानियों से गुज़र जाना तब मुमकिन होता है जब उपासक मन अपने आराध्य को अपने
जीवन का अंकुश मान लेता है-
मंझधार में डूबे हुए को / तिनके का सहारा मिल जाये
उस पल के लिये वही तिनका/ नाविक की नाव बन जाये
जीवन के गुज़र बसर में अगर जीवन जीने का यह फ़न किसी मुकाम पर आ जाए तो फ़िर
राहों की सीमाएं खत्म हो जाती हैं। हक़ीक़तों के इल्म को चुनौती देते हुए
कवयित्री का भावपूर्ण मन चरम सीमा को छू रहा है-
आसमां की ऊंचाइयों को छू लो अगर
पैर धरती पर ही टिकाये रखना
काटें कितने ही बिछे हों राहों पर
फ़ूल तुम उनमें से चुन लेना
सोच को दाद ! शब्दों को दाद ! दिये बिना आगे बढ़ना मुहाल है। ’दुख-सुख का
चोली-दामन का साथ’ मानव मन पर अपनी छवि कैसे दरपेश कर पाया है, ज़रा गौर से
देखें, सुनें और महसूस करें इस बानगी में –
दुखों की पोटली मैं कैसे बाँट लूँ
राहों में काटें हैं उन्हे कैसे काट दूं
और एक इल्तजा कर उठता है कवि-मन ज़िन्दगी के चमन से प्रेणादायक ख़ुशबू की
लहरों की, जो जीवन के हर काल में मन को महकाती हैं. रचना में वर्तमान की
महक तो है ही, अतीत की गंध भी है और भविष्य की ख़ुशबू भी-
फ़ूलों! तुम हमें हंसना सिखा दो
अपनी तरह महकना सिखा दो
उनका लगाव सुन्दरता और प्रकृति से है यह रचनाओं के बीच से झाँक उठता है।
फैले हुए विस्तार के दायरे में, शब्दों की कसावट और बुनावट इस क़द्र पेश
हुई है कि शब्दों की पर्तों से झांकते हुए अर्थ उनके मन की उज्जवल कल्पना
की उड़ान पाठक को उस रौ में बहा ले जाने में सक्षम रही है। इस बानगी की
ताज़गी देखियेः-
खुशबु है बेशुमार चमन में
फ़ूलो में,कलियों में
फ़ैला दो अपना दामन
क़सर ब़ाकी न रहने दो
फ़ूलों का, कलियों का वास्ता देती हुईं, खुशियों को दावत देती हुईं, बहारों
को ललकारती हुईं, यादों के रौशनदानों से अपने अतीत के चंद लम्हात, वर्तमान
के कुछ खट्टे-मीठे पलों की कुछ मुरादें और आने वाले भविष्य की कल्पना से
सजे सुन्दर तानों-बानों को जया जी किस नज़ाक़त से रुबरु कराती हैं-
यादों का है ताना-बाना
कसीदा एक कढ़ जाने दो
रोशनी बनकर तुम आये
नुक्ता-ए-नज़र बन जाने दो
प्रकृति का श्रंगार आँखों से उतर कर, मन को छू जाता है। यह सफ़र सौंदर्य का
साक्षी बनकर जिस तरह कलम बंद हुआ है, उससे जया जी की शैली निखर कर सामने आई
है. एक सरल, सहज, सुन्दर कल्पना यथार्थ में, और यथार्थ कल्पना में धुलमिल
से गये हैं। शब्दों की लय-गति पानी की कल-कल के सहज प्रवाह में एक संगीतमय
धारा बनकर गूंज उठी हैः
झील पार करती कश्ती से पानी का साज़
लहर की गति पर तैरते बुलबुलों की आवाज़
कविता का आगाज़ इन पक्तियों द्वारा जीवन रुपी चमन को सुख के फ़ूलों के साथ
जोड़कर उसे महकाने के प्रयास में एक अर्थपूर्ण सन्देश देते हुए, अपने
अनुभवों की परछाइयों से बाहर आकर जया वर्मा जब भी हकीक़त से मिलती हैं तो
अनायास कह उठती हैं-
पाँव रखते ही अहसास हो गया उस पर
फ़ूलों के साथ-साथ काटों की थी डगर
प्रेम और विश्वास के ये श्रद्धा सुमन कवयित्री जय वर्मा आदर के साथ अपने
जन्मदाताओं को समर्पित करती हैं, जिनके स्नेह का आँचल निरंतर घनी धूप में
साया बनकर इन यादों की ध्वनी में उनकी इन कविताओं की तंरगों पर इन्द्रधनुषी
किरणों की मानिंद आर्शीवाद एवं आत्मविश्वास का एक कलश बने..
श्रद्धा सुमन के पुष्प गुच्छ से
नतमस्तक करती हूँ प्रणाम
मेरा यह प्रयास कवि-मन की संवेदना और अनुभूतियों को सहेजना एवं सुधी पाठकों
को एक अनमोल कृति पढ़ने और संजोने की प्रस्तावना है। जाने-माने शायर श्री
प्राण शर्मा जी की सुरमई शब्दावली में धडकनों की ताल पर थिरकती, डा० कुंअर
बैचैन की भूमिका, मान्यवर सोमदत्त शर्मा की आत्मीय टिप्पणी, श्री राकेश
दुबे जी की शुभकामनाओं के साथ यह कविता-संग्रह विश्व में समाज के दायित्व,
आत्मीय संबंध, आध्यात्मिकता और मानवता का संदेश देता है। पुस्तक पाठनीय एवं
संग्रहणीय है। साहित्य जगत में अपना उचित स्थान पाने में जरूर समर्थ रहेगी।
इसी मंगल कामना के साथ शत-शत बधाई।
समीक्षकः देवी नागरानी
३१ दिसम्बर-२००९,NJ, dnangrani@gmail.com
कृति : "सहयात्री हैं हम" ( कविता-संग्रह), लेखक : जय वर्मा, , मूल्य-रु.
२००, पन्ने=१४४, प्रकाशक: अयन प्रकाशन १/२० महरौली, नई दिल्ली-११००३०