पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य पुस्तक ---- समर्पिता ( कविता संग्रह )
लेखिका--- डा० श्रीमती तारा सिंह
समीक्षक ---- श्रीकृष्ण मित्र , वरीय साहित्यकार व पत्रकार
काव्य के नये बिम्ब विधान,’ समर्पिता” काव्य संग्रह का चमत्कृत स्वरूप बन पड़ा है---------
‘‘समर्पिता‘‘ डा0 तारा सिंह का अट्ठारवाँ काव्य संकलन है । इससे पूर्व कवयित्री ने ’एक बूँद की प्यास” से लेकर ,’तिमिरांचला” और ’दूतिका” जैसे संकलनों के माध्यम से काव्य जगत को अपनी काव्य प्रतिभा से चमत्कृत किया है । डा0 तारा सिंह ने अपने नये छन्द विधान से, तुकान्तों से दूर रहकर कविता के ऐसे प्रतिबिम्बों का उत्कृष्ट लेखन किया है जो अलंकारिक दृष्टि से पठनीय और सराहनीय हैं । कवयित्री अपनी कल्पनाशीलता की डोर को उन निष्कर्षों से जोड़ती है जिसमें उसकी भाषा शैली गौण रूप से पुष्ट होती है ।
‘‘सिवा तुम्हारे कौन है अपना‘‘ शीर्षक से प्रारम्भ कविता कवयित्री की उत्कण्ठाओं को ढूँढती सी लगती है । किसी बिछुड़े आलिगन की पुलक का स्पर्श लेकर वह जीवन की सारी आशाओं में डूब रही है । वह प्राणों की उमड़ती हुई यमुना को आँखों में भरकर किसी मधुरस को ढूँढ़ रही है । किसी ऐसे असहाय और निराश्रय व्यक्ति को पंखहीन मनुज की भान्ति वासन्ती वायु के मादक झकोरों को निहारने का उपक्रम कर रही है । आशा और निराशा के नये व्यवधान में आँसू का छलकता स्वरूप देखती है । मजदूरनी की व्यथा कथा को डा0 तारा सिंह ने करीब से देखने का प्रयास किया है । युगों से अभिशप्त और उपेक्षित तथा सभी अधिकारों से वंचित स्थितियों का अवलोकन किया है । चिरकाल से वर्षा और ताप में पलित, उस असहाय की पीड़ा को समझा है । कवयित्री दूर क्षितिज में तरुमाला के आलोक में चाँदी की रेखा को लहराते हुए देख रही है । वह पल्लव- पल्लव में वासन्तिक हरीतिमा के दर्शन कर रही है । यही नहीं वह उस समाधान को भी देखने को आतुर है जिसमें पुर्नजन्म की प्रश्नावली के उत्तर तलाशने की आकांक्षा हैं । अस्ति और नास्ति के तर्कों पर, कर्म पर आधारित स्वर्ग की राह को आस्था के आधार पर ढूँढ़ रही है । वह जानती है कि यह जीवन का वृक्ष कभी भी ध्वस्त हो सकता है । इस वृक्ष के पत्ते झड़ते हैं तो झरने दो तथा ऐश्वर्य इच्छाओं को स्वीकृति प्रदान करो ।
डा0 तारा सिंह ने स्वर्ग खण्ड के उस स्वरूप को भी देखा है जो धरती के कल्याणकारी आशय को शिशिर, धूप, वर्षा, छाया और इसके साथ ही निखिल साधनों का आधार माना है । वास्तव में वह एक ऐसी कविता का रूप है जिसमें सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, तृण, द्रुम, पुष्प, नील तरंगें और अगाध सिन्धु का विस्तार विद्यमान है । कवयित्री अखबारी दुनिया की उन खबरों से चिन्तित भी है जिनमें एक कवि की मृत्यु का समाचार छपा है । इसी आधार पर मरणोन्मुख जगत की कालचक्र की सूचना से अभिप्रेत है । ये सारे अनुतरित प्रश्न कविता का विषय बन गये हैं । यही कारण है कि कवयित्री स्वीकार करती है कि मनुष्य कैसे और कब बदल जाता है ।
संकलन की कुछ चर्चित कवितओं में ‘‘हिमालय‘‘ शीर्षक की कविता अपना विशेष स्थान रखती है । जिसे स्पर्श कर समीर विश्व को शीतलता प्रदान करता है और जो मनुष्य को प्रत्येक स्तर पर प्राकृतिक धरातल की प्रभुता प्रदान करता है ; साथ ही निस्सीमता के अतल मर्म को सन्ध्या के रूप में पहचानता है । इसी भ्रम में उसकी आँखों में नीर की छलकन देखकर अविश्वास का अभिलाषित मन डूबडूब जाता है । फिर चाहे वह तपस्वी बनकर सांसारिक भ्रमों का निस्तारण ही क्यों न कर रहा हो । कविता के अनन्त आकाश में डा0 तारा सिंह ने जो दृश्य देखें हैं उनमें अनेक शीर्षक पठनीय बन पड़े हैं । इनमें एक खिलौना चाहिये,”दिल्ली’,”क्या दूँ,क्या हैं मेरे पास’;”मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ’, ’तुम कविता कुछ ऐसी लिख”, ’कोयल काल”, ’जब तृष्णा भरती होगी गर्जन’, ’जीवन मृत्यु तिमिर लेती जब हिलोर’”,’कण”, ’मा”, ’यमुना’,”जिन्दगी फूलों की सेज नहीं ’,”जिन्दगी’,”मैं अमर लोक का यात्री ’, आदि विशेष रूप से पठनीय हैं । इस के अलावा ’प्राण पंछी” कविता की मीमांसा मन को संतोष देती है ।
समर्पिता काव्य संग्रह का आवरण अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है । छपाई निर्दोष और सुन्दर है ।
समीक्षक: कृष्ण मित्र
कवयित्री: डा0 तारा सिंह
प्रकाशन: मीनाक्षी प्रकाशन
मूल्य: 100 रूपये मात्र
प्राप्ति स्थान: 1502, 16वीं मंजिल, सी क्वीन हेरिटेज, से० -18, सानपाडा, नवी मुम्बई - 400705