काव्य संग्रहः है यहाँ भी जल, लेखकः विजय सिंह नाहटा—समीक्षकः देवी नागरानी


सहरा के लबों की थरथराती प्यास के लिये “है यहाँ भी जल” विजय सिंह नाहटा, जयपुर के निवासी हैं और बहुत ही सधे हुए जाने-माने कवि है जिनका शुमार देश के मान्यवर कवियों में होता है. राजस्थान प्रशासनिक सेवा में वे निवर्त हैं. कल हमारा, सेतु, दूर कहीं आदि समवेत काव्य संग्रहों में उनकी रचनायें संकलित है. प्रसार भारती एवम् दूरदर्शन से निरंतर रचनाओं का अनुप्रसारण भी होता रहता है. “है यहाँ भी जल“ उनका पहला कविता संग्रह है.
विजय सिंह नाहटा जी का यह प्रथम कविता संग्रह मेरे हाथ जब आया तो कुछ पल के लिये मैं उस किताब को हाथों में लिए सोचती रही, जाने क्या? पर कुछ ऐसा उस कवर पेज के चित्र में संबोधित था, जिसे मेरी आँखें देख तो पा रही थी, पर पढ़ नहीं पा रही थी. स्याह-स्याह श्यामल रंग, उस पर अंकित दो आंखें, ऐसा कहीं लगता भी था, कहीं भ्रम होने का इशारा भी मिलता था, अन्तरमन के अदृश्य, अनदेखे दृश्य खुली आँखों के सामने न जाने किन तहों को बे-पर्दा करते रहे. और जैसे ही मेरे भ्रम की पहली तह खुली, आसमानी अदृश्यता के इशारे, कुछ गहराइयों से झाँकती सच्चाइयों की झलकियाँ सामने उस पन्ने पर नज़र आई जो मेरे सामने खुला था-
” आत्मा-सा मंडराता हुआ”
‘शब्द जो दिखता प्रकट/शब्द का आवरण होता सशरीर, स्थूल
उसके भीतर गहरे होता एक शब्द /चेतना की तरह पसरा हुआ-/अदृश्य, निराकार!!
शब्द जो दिखता है/होती झिलमिलाहट भीतर के शब्द की
शब्द जो प्रकट ज्योति की तरह /उजास है उस शब्द की
नहीं आया जो कविता में/आत्मा-सा मंडराता हुआ, हे बार !”
पल दो पल के लिए ख़ामोशी ने मेरी सोच के लब सी दिये, सुन्न निशब्दता का आगाज़ ! ऐसा कभी-कभार होता है, जब कोई साहित्य का हिस्सा सिर्फ़ शब्द न होकर कुछ और होता है, जो अपने अंदर के सच के सामने अक्स बन कर खड़ा हो जाता है. ऐसी ही शिद्दत, सुन्दरता, संकल्प इन अल्फाज़ों से झाँकती हुई विजय जी की इस रचना में पाई. अंतर्मन के सच का साक्षात्कार, सच के शब्दों में लिखा हुआ यह एक प्रयास ही नहीं, एक सफल दृष्टिकोण भी है जो इंसान को उस सच के दाइरे में लाकर खड़ा करता है. जीवन पथ पर लक्ष्य के इर्द-गिर्द यह दृष्टिकोण नक्षत्र सा मंडराता हुआ नज़र आता है. एक ध्वनि गूंजित होती सुनाई पड़ रही है जैसे उनके अपने शब्दों में-
” आत्मा से बाहर निकल कर ख़ुद को सजाता हूँ“
शब्द स्वरूप मोती मन को मोह के दाइरे में ला कर खड़ा कर देते हैं. गौतम बुद्ध की जीवन गति भी बेताश होकर उस सच को तलाशती हुई जब गाया पहुँची वहाँ उन्हें मोक्ष का साक्षात्कार हुआ. सेल्फ रीअलाइज़ेशन मक़्सद है, बाकी सब पड़ाव है उस अदृश्य निराकार दृश्य के.
विजय जी की कलम से सच भी धारा बन कर बहत चला जा रहा है. उनकी सोच प्रगतिशील है और एक मार्गदर्शक भी. वो शब्दों का सहारा लेकर उस शब्द की ओर इशारा कर रहे हैं जो इस रचना का आधार है, इस शरीर में प्राण फूंकता है, जो अग्नि बनकर देह में ऊर्जा प्रवाहित करता है. कविता रुपी देह के गर्भ से इस प्रकाश का जन्म होना एक अभिव्यक्ति है, जहाँ शब्द, शब्द न रहकर एक ध्वनि बन जाएं और शरीर के माध्यम में आत्मा सा मंडराता रहे. बहुत मुबारक सोच है जो लक्ष को ध्येय मान कर शब्दों की उज्वलता को कविता में उज्गार कर रही है. यहाँ मैं विजय जी के शब्दों में एक संदेश ख़ुद को और सच की राह पर चलने वाले अध्यात्मिक उड़ान भरने वालों के आगे प्रस्तुत कर रही हूँ. यह संदेश गीता का सार है, और ज्ञान का निचोड़ भी. देखिये उनके शब्दों की बानगी-
“मैं कल सुबह / तुम्हारी याद को /इतिहास की तरह पढ़ूँगा.
और आगे तो अनेक रहस्यों के द्वार खटखटाने का सिलसिला दिखाई, सुनाई पड़ रहा है. जहाँ शब्दों पर नज़र पड़ती है, पढ़ कर आँख कुछ पल थिर सी हो जाती है, सोच पर बल पड़ने लगते हैं कि कैसे यह रचनाकार अपनी रचना के ज़रिये हमें एक ऐसी स्रष्टी की सैर को ले चला है, जहाँ पाठक के सामने कुछ अनसुने, कुछ अनदेखे भीतर के राज़ फ़ाश होते जा रहे हैं. अब आगे देखें कुछ और शब्दों का ताल-मेल, उनकी स्वच्छता के साथ!!
” संभावनाओं की आहट से सुंदर /असम्भावनों की किसी मलिन-सी गली में
दिर्मूद से यकायक मिल बैठते हों बचपन के दोस्त! “
शब्द थपकी देकर जगा रहे हैं, संभावनाओं से दूर असम्भावनाओं के दायरे में एक संकरी गली से गुज़र कर जिस साक्षात्कार की कल्पना का मुझे अहसास दिला गई, तो अनायास ये शब्द मेरी कलम से अपनी व्याकुलता ज़ाहिर कर बैठे-:
“अब रूह में उतरकर मोटी समेट कुछ तो / दिल सीप बन गया है और सोच भी खुली है.”
मैं यह तो नहीं जानती कि पढ़ने से जो आभास मेरे अंदर उठ रहे है, वे किसी जानी पहचानी, बेशक रूहानी सफ़र की ओर संकेत कर रहे. आगे देखिये औए सुनिए शब्दों की आवाज़ को:
” जब तुम न थीं / तो प्रतीक्षा थी /अब तुम हो / मैं ढूंढता हूँ प्रतीक्षा को.
शब्द की गहराइयों में एक विरह भाव प्रतीत होता है, जैसे अपने आप से मिलने के लिए जीवित तड़प की चिता पर मरने के इंतिज़ार में. अपने आपको जानने, पहचानने की, और उस सत्य में विलीन होने की प्रतीक्षा ऐसी ही होती होगी जिसकी विजय जी को तलाश है. बड़ी ही मुबारक तलाश है यह , ज़हे नसीब!! सफ़र का सिलसिला कुछ पल एक और पड़ाव पर आकर ठहरना चाहता है जहाँ सोच में डूबे हए शब्द भी इतनी खूबसूरती से अपने होने का ऐलान कर सकते हैं.
-”तुम्हारी स्मृति अब एक रड़कती मुझमें ? / राख के इस सोये ढेर में
ज्यों दिपदिपाता एक अंगारा मद्धम / सोये हुए चैतन्य में /लो तुम अचानक देवता सी
जग गई मुझमें /जगाती अलख निरंजन!”
अंतःकरण से आती हुई कोई आलौकिक आवाज़, जैसे कोई गूँज भंवर गुफ़ा की गहराइयों से बुला रही हो, अपने पास-निद्रा में अनिद्रा का पैग़ाम लिए:
छन छन छन छन /रुन झुन रुन झुन /पायल की झन्कार लिए !!
अजीब, अनूठा सा! एक सुंदर चित्र सजीव सा खींचने का सफल प्रयास, मन की भावनाओं का सहारा लेकर कवि विजय की कलम इस सार्थक रवानी को लिये थिरकती है जिसके लिये मैं उन्हें तहे दिल से शुभकामनाएं देती हूँ. मन की आशा बहुत कुछ पाकर भी कुछ और पाने की लालसा में निराशाओं को अपने आलिंगन में भरने को तैयार है. यादों की सँकरी गली के घेराव में एक बवंडर उठ रहा है जहाँ साँस धधकती है, मौत के नाम पर आत्मा के अधर जलने लगे है, जलती चिता पर जीते जी लेटे उस इन्तज़ार में जहाँ, उस पनाह को पाने के लिये, वहीं उस अवस्था में जहाँ जिंदगी एक आह बन जाती है और मौत उसकी पनाह बन जाती है. हर पन्ने पर शब्द निशब्द करते चले जा रहे हैं और झूठ का एक-एक आवरण सच में तब्दील होता जा रहा है. जैसे:
” समृति गोया गिलहरी /काल के उजाड़ सन्नाटे तले /फुदकती / इस डाल से उस डाल!”
एक ख़ालीपन का अहसास अपने भरपूर आभास के साथ फुदकता हुआ नज़र आ रहा है. जो मैं महसूस कर रही हूँ, जो पदचाप शब्दों की मैं सुन रही हूँ, जो अक्स मैं इन शब्दों के आईने में देख रही हूँ, ज़रूरी नहीं कोई मुझसे शामिल राय हो. कवि जब लिखता है तो उस समय उसके मन की स्थिति, उसके भाव, उसके ह्रदय की वेदना, विरह का अवस्थिती, मिलने की आशा, निराशाओं की जकड़न उसके सामने सोच बनकर आ जाती है, और लिखते लिखते वो कहीं न कहीं उस छटपटाहट को छुपाने या दर्शाने में कामयाब हो जाता है, यही एक लिखने की सफ़ल कोशिश है जो अनबुझी प्यास को लेकर सहरा में भटकते हुए एक कवि, एक शायर, एक लेखक, शिल्पकार, एवं एक कलाकार को अपनी रचना को सजीव करने का वरदान देती है. आइये साथ-साथ सुनें उस ख़रगोशियों को-
अरे ये क्या सामने ही लिखा है?
” क्षण वह लौट नहीं आएगा
मौन तोड़ता हुआ फुसफुसाएगा. ”
लगता है तन्हाइयां बोल रही हैं. वक्त फ़िसलती हुई रेत की तरह हाथों से सरकता जा रहा है और हमारी बेबसी उसे देखे जा रही है, जिसका इशारा इस शेर में बखूबी झलक रहा है. विजय जी की लिखी हर पंक्ति अपने आप में एक जुबां है, मौन तोड़ती हुई, फुसफुसाती हुई. बस उन ख़ामोशियों को सुनने वाले कानों की ज़रूरत है. ख़ामोशी के जब-जब लब खुले तो बहरे उसे सुनने लग जाते हैं. हाँ अहसास जिंदा हो, शब्द अपने आप बोलने लगते हैं, कभी तो शिद्दत के साथ चीखने भी लगते हैं. ऐसी ही इस सुंदर रचनात्मक अनुभूति के रचयिता श्री विजय जी ने बड़े अनोखे ढंग से अपने अँदर के लहलहाते भावों के सागर को, शब्दों का सहारा लेकर अलौकिक रूप से व्यक्त किया है. कभी किसी कड़वाहट को पीने की घुटन के बाद, कभी इंतज़ार के बाद थकी थकी सी आँखों की पथराहट की ज़ुबानी, कहीं आकुल तड़प की चट्टान पर बैठी उस विरहन की जुबानी, तो कहीं सहरा की तपती रेत पर चलते चलते पाँव के छालों की परवाह किए बिन ही पथिक जिस पथ पर अपने ही वजूद की तलाश में भटक रहा है -उस आत्मीय मिलन की प्यास लिए हुए- इन सभी अहसासों को शब्दों की सरिता स्वरूप पेश करने की सफ़ल कोशिश की है. ज़िंदगी का एक सिरा अपनी अनंत यात्रा की ओर बढ़ते हुए दूसरे सिरे को टटोलने लगता है तो विजय जी के शब्दों में:
” मृत्य अलार्म घड़ी है, /पर जिसकी चाब्बी हम नहीं लगाते
हमें जगह कर पकडा देगी /दूसरी यात्रा की गाड़ी. ”
इस पुस्तक के हर पन्ने पर हर शब्द को पढ़ते हुए, उसे समझने, समझकर पचाने की कोशिश में मेरी अपनी सोच लिखने की धारा को रोक नहीं पा रही है. जो आग का दरिया कवि के दिल में रवां होता है और जिसकी जलन को वह महसूस करता है, उसी अनुभव के आधार पर रचना का निर्माण होता चला जाता है. बस इन अहसास भरे शब्दों के गुलदस्ते ने अपनी महक से मेरे अंतर्मन को निशब्द कर दिया है. बाकी बातें मौन में होती रहेंगी. एक बार विजय जी को इस अनोखे, अद्भुत अनुभूतियों से भरे काव्य संकलन को प्रस्तुत करने के लिए मुबारकबाद है.

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