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चंद असरार

 

 

हवाओं ने तुम्हारे घर का कचरा दूर तक फेंका ,
सरे बाजार मे चर्चा तुम्हारे घर की होती है ।


कोई पत्ता ,कोई तिनका कभी मेरा हुआ करता ,
मेरे कुछ पेड़ अपने थे जो अब उनके होते हैं।


हवा कुछ अपनेपन से पूछती फिरती पता मेरा ,
मुझे मालूम है कि ये हमें बरबाद कर देगी ।


दरख्तों पर जो बैठें हैं ,परिंदे खुश ही रहते हैं ,
कभी उड़ उड़ कर आते हैं ,कभी उड़ उड़ कर हैं जाते ।


हमारे नाम से अब उस शहर में कौन चौंकेगा ,
नहीं कोई रहा है अब वहां हमे पहचानने वाला ।

 


कामिनी कामायनी ॥

 

 

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