प्रेरणे! तुमसे यूँ दूर रहना, असंभव है असंभव । अब विलग रहना निमिष भर भी,
असंभव है असंभव ।। विरक्ति कातर जान मुझको, छलछलाए लोचने से: इक दिन कहा था
तूने, "प्रियतम, मुझको न भूल जाना ।" हृदय की वासी! तुम्हेँ भूलूंगा कैसे,
तुम ही बताओ: नीँद मेँ भी तो है तूँ ,मृत्यु मेँ भी है ठिकाना ।। हर पल
वरवस मुझे है, याद आती तेरे मिलन की: नाच उठती हैं दृगोँ मेँ, स्वप्न बन
संसर्ग बेलेँ । तेरे बिन बहलाता हूँ जब, निज व्यथित हृदय मैँ: गिन गगन के
तारकोँ को, आह! भरता हूँ अकेले ।। तेरी कल्पना के अक्स भर, है भीगती भीतर
पलक जब: थक प्रतीक्षा मेँ पल भर को, आँख मुँदती है अचानक । तब हो तुम्हीँ
आती सपन, बन पोँछने को अश्रु मेरे: चूमने को ये ओश के, मोती उषा- सी अरुण
चंपक ।। @ "आंशुओँ का अर्ध्य देकर, नाम जपता हूँ तुम्हारा: दिल में सजा
मूर्ति तेरी, सुकुमारि तुमको पूजता हूँ । मुझमेँ समाकर भी तू ,निकल ली हे
दिल की रानी: आज मैं निरुपाय, कोशोँ दूर बैठा सोचता हूँ ।।"@ विश्व मेँ
अपवाद हूँ , उपहास हूँ निष्ठुर समय का: हथकड़ी-बेड़ी बना दी, तेरे इंसाफ ने
सब कामनाएँ । दीन वंदी हूँ प्रिये! पर भृकुटि संचालन करो तो: तोड़ सकता हूँ
पल मे ही, विश्व की सब श्रृखलाएँ ।। तुम बनी मेरी प्रभु! तो, मैँ क्योँ
रहूँ यूँ अकिँचन: त्याग सकता हूँ सकल ब्रह्मांड को, ज्योँ धूलि कन । सारे
ही बंधनोँ को तोड़ सकता हूँ , तेरी साधना को: चाहे देह हो विसर्जित, मिले
धूलि मेँ बन राख कन ।। चारु पथ बह विश्व मेँ, विख्यात जो आकाश गंगा:
प्रेमियोँ के चरण छू जो, हो रही उज्वल निरंतर । जहां प्रेमी चिर मिलन का,
वरदान पाते हैँ प्रिये: वहाँ तो हम मिलेँगे ही बंधनोँ से मुक्त होकर ।। पर
आ प्रिये! जी लेँ, अब ये जिंदगी भी: इसे यूँ व्यर्थ करना,अब असंभव है असंभव
। प्रेरणे! तुमसे अब यूँ , बिलग रहना: असंभव है असंभव ।।
विकास मानव