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जनक छंद

 

 

(१)
काम सितारे दें कहाँ
उनमें नभ का दर्प है-
आस लगाओ मत यहाँ

(२)
विहँस रहा हैवान है
सज्जनता सिमटी पड़ी-
प्रीत बड़ी हलकान है

(३)
ये कैसे दिन आ गए
धुँआ-धुँआ सी है हवा-
मेघ बदन झुलसा गए

(४)
जीवन भी हो छंद सम
अनुशासन पग-पग रहे-
दूर करे नित व्याप्त तम

(५)
बुला रहा कब से गगन
पंछी ही असमर्थ है-
दोनों के मन में अगन

(६)
नौका में भी छेद है
जाए कैसे पार वो-
माँझी के मन भेद है

(७)
दयावान दीया बड़ा
बचा-खुचा तम ले शरण-
उसके ही तल में पड़ा

(८)
कोयल बैठी गा रही
एक गिलहरी पास ही-
देख उसे ललचा रही

(९)
छाया के मन भीत है
साँझ ढले मिटना उसे-
जग की ये ही रीत है

(१०)
मौसम भी बौरा गया
करी तपिश की कामना-
ये पानी बरसा गया

(११)
जिस-जिसने खेला जुआ
गँवा दिया पद, मान को-
क्या-क्या घटित नहीं हुआ

(१२)
नहीं सदा दुष्कार्य है
शांति हेतु तो युद्ध भी-
कभी-कभी अनिवार्य है

(१३)
आया नया विहान है
लौटी रौनक हृदय की-
नहीं कहीं सुनसान है

(१४)
घिरती आती शाम है
दिन की चर्चा हो रही-
शनैः-शनैः गुमनाम है

(१५)
गले-गले में प्यास है
नीर गया हड़तालपर-
सूखेपन का वास है

(१६)
रात भोर में खो गई
भूल निशिचरों का सबक-
फिजाँ सुहानी हो गई

(१७)
दीन-हीन, मजबूर हैं
दूजोंपर क्या कुछ लिखें-
हम तो खुद मजदूर हैं

(१८)
वही स्नेह की छाँव है
अपनी सी हर इक डगर-
आखिर अपना गाँव है

(१९)
काँटे न हों गुलाब में
ये तो वो ही बात ज्यों-
नशा रहे न शराब में

(२०)
हम कैसे अपना कहें
तुम हो इक आभासभर-
क्यों न तुम्हें सपना कहें

(२१)
हम जल देते भापकर
मेघ न देते कुछ हमें-
वो लौटाते ब्याजभर

(२२)
स्वाभिमान मत छोड़ना
जीवन का ये रत्न है-
कभी न इसको तोड़ना

(२३)
मन-पंछी जाए कहाँ
सहमा बैठा नीड़ में-
बहेलियों का है जहाँ

(२४)
बैरी जिसका लाभ ले
इतने मीठे क्यों बनें-
गप से कोई चाभ ले

(२५)
बेमानी अब आस है
नीर खोजती थार में-
लुप्त हुई वो प्यास है

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नामः कुमार गौरव अजीतेन्दु

 

 

 

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