विविधता में भी है भाव - मैत्री,
सत्ता है सियासत की अधिष्ठात्री ।
तुम हमारे लिए, हम तुम्हारे लिए,
रंजिशें हैं जरुरी , दिखाने के लिए ।
तेरे और मेरे में , ना भेद कोई,
दीन, धरम और न ईमान कोई ।
तू तो चोर कहीं का और मैं हूँ सिपाही,
रकम चोरी की मगर, ना नज़र आयी ।
अनेक में भी वो सिर्फ एक देखता है,
तभी तो सियासत में खुदा देखता है ।
with apologies,
' रवीन्द्र '