खबर पढ़कर मन एकदम चमन हो गया. राज्य ने आखिरकार एक 'नैतिकता समिति' का
गठन कर ही लिया. चलो, इतना साहस तो आया हममें कि ऐसी समिति के गठन की
अनिवार्यता को सार्वजनिक स्वीकृति दे डाली. समाज में, और खासतौर से
सार्वजनिक जीवन में आदर्श, मर्यादा और नैतिकता--जैसे आई -एस -आई मार्का गुण
नहीं रहेंगे तो फिर समाज में बचता ही क्या है-- कददू? नैतिक मूल्य बहाल
होंगे तो ही इस देश की सोने की रूठी चिड़िया वापस लौटेगी; तो ही अवतरित
होंगे कबीर, बुद्ध, महावीर, गांधी...
नैतिकता और मर्यादा आदि की सावधानी हटी और भ्र्ष्टाचार की दुर्घटना घटी --
के सीधे-सादे फार्मूले पर पुनर्विचार करने का होश देश के 'बड़ों' को आया, तो
धन्य हो गए हम देसी छोटे. देशभक्ति से रँगा बसंती चोला पहनकर आये जनसेवकों
ने जब से अपनी तोंदों को राक्षशी महासुरंग बनाकर, लूट-खसोट की नीति लागू की
तब से विश्व का सबसे बड़ा प्रजातंत्र छिपकली की कटी पूँछ-सा तड़प रहा था!
नैतिकता समिति कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों के सार्वजनिक जीवन में आये
दृष्टिगत घाटे की भरपाई करने को प्रतिश्रुत है. खबर पढ़कर यह यकीन भी आ गया
कि इस समिति के सदस्य वाक़ई वे उत्तम राष्ट्रीय व्यक्ति होंगे जो अनेक
अग्निपरीक्षाओं से सुरक्षित बचकर आ निकले निष्कलंकजन हैं.
हमने सोचा, आज से अपने घर में भी सब-कुछ बदल दिया जाए. अक्टूबर महीनेवाली
विशेष छूट का इंतज़ार किये बगैर ले आएं मोटी खादी के दो-चार जोड़ी कपड़े. घर
से धकिया दें माइकल जैक्सन की स्त्रैण तस्वीर, और मूँछ उमेठते चन्द्रशेखर
आज़ाद की वीर तस्वीर से दीवार को सजा दें. फेंक दें सारे कैसेट्स अलीशा
चिनॉय, पार्वती खान और बिड्डू के और ले आएं कैसेट्स उस्ताद अल्लारखाखां,
हरिप्रसाद चौरसिया, बिस्मिल्लाहखां और पं. रविशंकर के. अब हमारा बनारस नहीं
रहेगा 'अंधेर नगरी', बल्कि हो जायेगा राजा हरिश्चंद्र का सत्यनगर. उत्तर
प्रदेश में कुछ नए ज़िले और बन जायेंगे जिनके पवित्र नाम होंगे--
नैतिकतानगर, आचरणबाद, जनादेशपुर, सदाचारद्वार और अन्तरात्मापुरी आदि. ऐसा
सोच-सोचकर अपना कलेजा बढ़ता जाये-- छत्तीस गज तक. दाँत ऐसी स्थायी हँसी
हंसें कि होंठों के ढाँपने में ही न आएं!आँखों से अनवरत निकले खिलखिलाती
वानर सेना. ' आज मैं इतना हसूँ कि मेरी आँख लगें रोने' की तड़पती मुकेशमयी
स्वरलहरी से मैं रोम-रोम-रोमांचित!
'आये-हाये ...! मैं लुट गया रे. . बरबाद हो गया! तेरा नाश होवे रे
यमराज. . !' इस दर्दनाक विलाप का क्रंदन सुनकर मैं यकायक काँप उठा. फिल्मों
में खलनायक की लायक टीम , नायक वंश के नाश की पूर्व-संध्या पर उनकी
आनंदावस्था में जैसे कहर बरपा करती है-- ठीक वैसी ही दीन स्थिति मेरी बन
गयी. अलमारी में छिपकर भावी नायक द्वारा तमाम हिंस्र दृश्यों को झेलने की
पीड़ा का सच्चा दुःख अनुभव करते हुए मैं , 'कौन है रे कमबख्त', कहकर चीखने
ही वाला था कि तुमुकजी का आँसूसिक्त चेहरा मेरे सामने था. चौबीस में से
पच्चीस घंटे 'हें -हें' करनेवाले तुमुकजी की ऐसी आँसूतोड हालत देखते ही
मुझे आशंका हुई कि मामला अति संवेदनशील है. अवश्य ही इनका कोई सगा तथा
इकलौता (पिता/पत्नी/पुत्र) अब नहीं रहा होगा! तुमुकजी श्मशान से सीधे मेरे
पास आये थे.
'तुमुकजी, कुछ बताइये तो सही, हादसा कब हुआ.. खैर, जो भी हुआ सो हो गया!
ऊपरवाले को हमें यह दिन दिखाना था, दिखाया! उसकी माया, वही जाने.' रुँआसा
मैं उवाच!
'इन्हीं हाथों से उन्हें मुखाग्नि दे कर आ रहा हूँ, भैया. . ! हो-हो-हूऊ!'
अपने हाथों को निहारते बुक्का फाड़कर रोये तुमुकजी.
मैंने मरीज का-सा ट्रीटमेंट देते हुए तुमुकजी के खुले मुँह में गंगाजल
डाला. बगैर शैम्पू के धुले, गंदे बालों को स्नेहिल ऊँगलियों से सहलाया;
उनके आँसू पोंछे. पीठ पर हाथ रखकर उन्हें सांत्वना दी. देखते-देखते तुमुकजी
की सांसें व्यवस्थित हुईं. कातर दृष्टि से घूरते हुए बोले तुमुकजी: 'वे सब
सिधार गए एक साथ. बहुत कोशिश की रोकने की, मगर नहीं जी,उनके कागज जो पूरे
हो गए थे!'
तुमुकजी की इस पहेली से मैं परेशान था. अगर इनके निजी परिवार से सब सिधार
गए थे तो मेरी जान खाने को ये अकेले क्यों बच गए ? तभी मुझे उबारा
त्तुमुकजी ने. कहा,' मैं कब से आदर्श टकटकी लगाये बैठा था, सारी स्थितियों
पर. ठीक है, चीजों के अर्थ और आकार वक़्त के साथ बदलते जाते हैं, मगर ऐसा
नहीं होता कि दहकते सूरज का मतलब 'राख' हो जाए, या जन्मदात्री की कोख का
अर्थ बदलकर 'चिता' हो जाए. मगर भाई मेरे, हमारे कर्णधारों ने शब्दों की
अर्थवान सीमाओं का अतिक्रमण ही नहीं किया, उनसे बर्बर बलात्कार भी किया.
कहते हैं कि नैतिकता का अर्थ उन्हें न सिखाया जाये. बोलते हैं--
भ्र्ष्टाचार के राजयोग में फँस जाने पर कहाँ लिखा है कि नैतिकता के आधार पर
किसी को भी इस्तीफ़ा दे देना चाहिए! कहीं भी नहीं लिखा है न? सही है,
संविधान निर्मात्री सभा में ऐसा कल्पनावादी सदस्य कोई न था जो अ-कहानी या
अ-कविता की तर्ज़ पर ऐसे अ-नेता या कु-नेता की कल्पना कर पाता. अरे, इंटरनेट
के कमाऊ बन्दों ने एक नंगी देह पर किसी पवित्र, देवी-सम भारतीय अ-बला
अभिनेत्री का चेहरा चेपकर, अश्लीलता का काल्पनिक चक्रवाती तूफ़ान बनाया तो
अलग बात है मगर यहां तो शब्द के परम-पावन अर्थों की अवज्ञा का गंभीर मामला
था. इसी तरह बाक़ी आदर्शों और मूल्यों के अर्थ देखें-- जनादेश का वास्तविक
अर्थ प्रदूषित है, धर्मनिरपेक्षता का अाशय धूल-धूसरित है. हिंदुत्व क्या
है-- भारतीयता या संस्कृति क्या है-- इन पर जानलेवा अर्थभिन्नताएं हैं.
परिभाषाओं की माँ - बहन हो रही है.. ! मात्र शब्दों के लावारिस शव पड़े हैं
जिन पर टूट रहे हैं गिद्धराज, भिनक रही हैं मख्खियां ! अंतरात्मा ने मुझे
धिक्कारा और मैंने तुरत-फुरत कुछ शब्दों जैसे-- अंतरात्मा, नैतिकता, आचरण,
जनादेश, धर्मनिरपेक्षता वगैरह जो कि इधर गरीब की लुगाई हो गए थे, की
संयुक्त अरथी बनाई और उन्हें श्मशान घाट में जाकर फूँक आया. हाँ, इन्हीं
हाथों से मैंने उन्हें मुखग्नि दी है!'
तुमुकजी का यह स्वीकार्य वक्तव्य मुझे सन्न-सुन्न कर गया. इस देश में कुछ
शब्दों के अर्थ जीवित नहीं रहेंगे तो कबाड़ा हो जायेगा. शब्दों की गुमशुदगी
का पता चलते देर थोड़े ही लगेगी? इस ज़ुर्म में तुमुकजी को धर लेंगी हमारी
जाँच एजेंसियां एक मिनट में...! और फिर अभी-अभी नैतिकता समिति का गठन हो ही
गया है तो फिर देर किस बात की? ... मैंने ये सारी बातें कहीं तुमुकजी से.
सुनकर मेरी बात तुमुकजी की 'हें -हें ' आ गयी. साथ ही वे गुनगुना भी उठे:
'ऐ वतन, ऐ वतन! हमको तेरी क़सम, तेरी राह में जां तक लुटा जाएंगे.'
राजकुमार गौतम