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फलना जगह के डी.एम

 

 

“फलना जगह के डी.एम पैदल ऑफिस जाएगे। देश के गिरते रूपये को बचाने के लिए और ईंधन की खपत को कम करने के लिए महाशय ने ये कदम उठाया है। श्रीमान के भीतर ज्ञान की बत्ती तब जली जब उन्होंने एक अखबार के विशेषांक को पढ़ा।“ नेता जी ने इस ख़बर को ऊँचे सुर में पढ़ कर अपने राजनीतिक गुरु मिश्रा जी को सुनाया। उनका मकसद खबर को सुनाना नहीं था, उनका मकसद था खबर में किए गए शब्दों के हेर-फेर को और खुद के दव्आरा डी.एम के ऊपर किए गये कटाक्ष को सुनाना। पेपर को बगल की मेज पर रखते हुए नेता जी ने मिश्रा जी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखा, ठीक उसी तरह जैसे किसी छोटे बच्चे ने अपने शिक्षक को ए. बी. सी. डी सुनाने के क्रम में सी फॉर कैट के स्थान पर सी फॉर कॉउ सुना दिया हो और जेड पर रूकने के बाद शिक्षक को उम्मीद से देखने लगा हो। ऐसी रेव्युलेशनरी क्रिएटिविटी के बाद बच्चे को शाबासी की तलब रहती है। नेता जी को भी इसकी तलब थी। नेता जी ठहरे आठवीं फेल और मिश्रा जी थे बी.ए पास, नेता जी के लिए उनकी शाबासी के मिलने का मतलब बी.ए की डिग्री मिलना। लेकिन जब मिश्रा जी ने नेता जी के इस क्रिएटिविटी पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की तो नेता जी का चेहरा थोड़ा लटक गया लेकिन वे ठहरे नेता, सिर्फ पेशे से ही नहीं जात से भी, हार कैसे मान लेते ? लिहाजा दुबारा कोशिश की-


“देखते हैं मिश्रा जी ई अफसर को..... इनको लगता है ई अकेले डॉलर के सामने रुपया के शेर बना देंगें और इनके अकेले के पैदल ऑफिस जाने के भारत ईंधन के मामले में आत्मनिर्भर देश बन जाएगा। अरे... अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। ई सब कुछ नहीं सिर्फ शोबाजी है...पब्लिसिटी स्टंट है”।


इस बार नेता जी ने उस खबर का विश्लेषण कर दिया था और हिन्दी के मुहावरे को भी सही जगह फिट कर दिया था। आम तौर पर नेता जी हिन्दी के मुहावरो के साथ इस तरह का उचित व्यवहार नहीं कर पाते थे। मन ही मन नेता जी ने कहा कि इस बार तो मैं पक्के तौर शाबासी का हकदार हूँ।


नेता जी के भीतर शाबासी की भूख की एक वजह और भी थी। चार दिन पहले नेता जी जब अपने चमचों के साथ राजनीति से जुड़े किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। मिश्रा जी ने यह कहकर भरी सभा में चुप करा दिया था कि पैसे देकर पार्टी टिकट पर चुनाव जीत जाने से कोई राजनीतिज्ञ नहीं हो जाता।


बहरहाल, नेता जी को शाबासी तो नहीं मिली उल्टे उनकी कोशिशों से मिश्रा जी चिढ़ जरूर गए। नेता जी पर थोड़ा झल्लाते हुए कहा “आपको इतना समझ में आता है कि ये सब पब्लिसिटी स्टंट है लेकिन ये नहीं बुझाता कि इस चुनाव में आपको भी इसका जरूरत पड़ेगा। ”


“हमको क्यों जरूरत पड़ेगा ? भाई, हम पार्टी के कद्दावार नेता हैं। हमारी पहचान किसी पब्लिसिटी की मोहताज नहीं है। ”

 

“इस बार लहर पार्टी के विरूध्द है। हाई कमान अबकी आप पर रिस्क नहीं लेगी। दिल्ली में आपका पत्ता साफ करने के बारे मे सोचा जा रहा हैं, ई पैदल काम पर जाने वाला पैंतरा आप भी आजमाइये। इससे आप एक तीर से दू जगह निशाना साध सकते है”।


“ऊ कइसे ?”


“डीजल-पेट्रोल का दाम और महँगाई इस पार्टी के राज-काज में बेलगाम हो कर बढ़ा है। अगर आप गाड़ी छोड़ कर पैदल दौरा और उदघाट्न स्थल पर जाना शुरू कर दें तो मिडिया आपको हाथो-हाथ लेगी और खबर ये बनेगा की जनता के दर्द को समझते हुए आपने पार्टी की नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।”


“खुद बोलते हैं टिकट मिलने की उम्मीद नहीं है और खुद सिखा रहे हैं पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए...... मतलब हम अपना कब्र खुद खोदे ?”


“ईसिलिए कहते हैं कि जब राजनीति नहीं बुझाए तो बिलावजह दिमाग नहीं घिसा करते। अरे हाईकमान टिकट दे या ना दे इतनी पब्लिसिटी के बाद विपक्ष की ओर से आपके टिकट का गॉरन्टी हम लेते हैं। बस ई वाला स्टंटबाजी के अलावा तीन-चार करतब और करना होगा।”


मिश्रा जी की बात सुनकर नेता जी के होठों पर एक कुटील मस्कान आ गई। वे इनके इसी राजनीतिक दूरदर्शिता के कायल थे। इसके लिए मिश्रा जी शाबासी के हकदार थे।

 

 

कुंदन कुमार

 

 

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