लिव-इन रिश्ते बनाने से पहले अपने कल के बारे में अवश्य सोचिये
Ø गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
डाक्टर शालिनी कौशिक का एक आलेख लिव इन संबंधों के आगामी परिणामों को लेकर एक खासी चिंता का बीजारोपण करता है. कारण साफ़ है कि "वर्ज़नाओं के खिलाफ़ हम और हमारा शरीर एक जुट हो चुका है..!" अर्थात हम सब अचानक नहीं पूरी तैयारी से वर्ज़नाओं के खिलाफ़ हो रहें हैं. हम अब प्रतिबंधों को समाप्त करने की ज़द्दो ज़हद में लगे हैं.
जिन प्रतिबंधों को हमें तोड़ना चाहिये उनसे इतर हम स्वयं पर केंद्रित
होकर केवल कायिक मुद्दों पर सामाजिक व्यवस्था द्वारा लगाए प्रतिबंधों को
तोड़ रहे हैं. निर्मुक्त हो परीमित न होने की उत्कंठा का होना सहज़ मानव
प्रवृत्ति है.
इस उत्कंठा का स्वागत है. किंतु केवल शारीरिक संदर्भों में प्रतिबंधों का
प्रतिकार करना अर्थात केवल विवाह-संस्था का विरोध करना तर्क सम्मत नहीं
है.. न ही ग्राह्य है. यहां धर्म इसे गंधर्व विवाह कहता है तो हम इसे
लिव-इन का नया नवेला नाम दे रहे हैं. बहुतेरे उदाहरण ऐसे भी हैं जिनका
रहस्य ऐसे दाम्पत्य का रहस्योदघाटन तब करता है जब किसी एक का जीवन समाप्त
हो खासकर उज़ागर भी तब ही होते हैं जब पिता की मृत्यु के उपरांत कोई और
सम्पति पर दावे के लिये सामने आता है. मेरे एक मित्र की भावना तब आहत हुई
जब वो पिता के बक़ाया स्वत्वों के लिये सरकारी संस्थान में गया जहां उसके
पूज्य पिता सेवक थे. पता चला कि सम्पति के लिये किसी ने आवेदन पूर्व से ही
लगा रखा है. हालांकि लिव इन में सब कुछ स्पष्ट होता है.. लेकिन पुरानी
सामाजिक व्यवस्था में ऐसे संबंध अक्सर छिपाए जाते थे. खुलास होने पर पिता
अथवा माता के प्रति सामाजिक नज़रिया बेहद पीढादाई होता था. पर लिव इन
सम्बंधों को आज़ भी अच्छी निगाह से देखा जाएगा अथवा उसे मध्य-वर्गीय समाज,
सामाजिक एवम धार्मिक स्वीकृति देगा मुझे तो विश्वास नहीं. हां आर्थिक
दृष्टि से सम्पन्नों अथवा एकदम विपन्नों के मामलों में स्थिति सामान्य सी
लगती रहेगी.
लिव इन व्यवस्था अथवा चोरी छिपे कायिक ज़रूरतों (ज़्यादातर लालसा ) को पूरा
करने वालों के लिये सामाजिक नज़रिया सकारात्मक तो हो ही नहीं सकता. फ़िर
उसके परिणामों से प्रसूति संतानों को कोई समाज कितना स्वीकारोक्ति देगा आप
समझ सकते हैं.
आलेख का आशय स्पष्ट है कि- हमें ऐसे कायिक-रिश्तों की पुष्टि सामाजिक रूप
से करा ही लेनी चाहिये वरना भविष्य में संतानों का जीवन आपकी ग़लतियों से
प्रभावित हुए बगै़र नहीं रह सकता.
सुप्रति
संपादक जी
“सादर-अभिवादन”
उपरोक्त आलेख प्रकाशन हेतु सादर प्रेषित है .
Ø गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”