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हमारी पहली किताब छपी....

 

 

हमारे लेख, व्यंग,कविताये लघुकथायें, संस्मरण और कहानियाँ औनलाइन पत्रिकाओं मे तो काफ़ी दिनो से आ ही रहीं थी, अब प्रिंट मे अख़बारों और पत्रिकाओं मे भी कई रचनायें प्रकाशित हो चुकी थीं। कुछ मित्रों और गुरुजनो की प्रशंसा भी मिल जाती है तो हमने सोचा कि अब हमे एक काव्यसंग्रह छपवाने के बारे मे सोचना चाहिये।जब तक किसी लेखक या कवि की कोई पुस्तक न छपे, दो चार सम्मान न मिलें तो लोग उसे कवि या लेखक पूरी तरह नहीं माना जाता है, इतना ही नहीं स्वयं उस व्यक्ति को भी अपने को कवि या लेखक मानने मे संकोच होता है।

 


किताब छपवानी ही है तो सबसे पहला क़दम तो पाण्डुलिपि तैयार करने का ही होगा।अब हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का ज़माना तो है नहीं, यह हम अच्छी तरह जानते हैं।हमारी सारी कवितायें पहले से ही देवनागरी लिपि टंकित हमारे p.c पर सुरक्षित हैं।हमने अपनी कविताओं को विषयानुसार अलग अलग अध्यायों मे बाँट कर सिलसिलेवार एक नया फोल्डर बना लिया।प्रस्तावना भी लिख ली। कुछ कवि मित्रों से अपनी प्रशंसा मे कुछ पंक्तियाँ भी लिखवाली।इस फोल्डर को पैन ड्राइव मे डाल कर हमने समझा हमारी पाण्डुलिपि तैयार है।

 


अब अगला क़दम प्रकाशक को ढूंढना था। कुछ साहित्यकार मित्रों ने प्रकाशकों के नाम दिये, कुछ गूगल से ढूंढे फिर उन सबसे फोन पर बात करके ऐसा लगा कि उनमे से तीन प्रकाशकों से मिल लेना चाहिये, शायद बात बन जाये।हम तीनो से मिले और तीनो ने लगभग एक ही बात अलग अलग शब्दों मे कही। उनका कहना था कि किसी भी लेखक या कवि की पहली किताब वो अपने ख़र्च पर नहीं छापते।यदि पहली किताब की बिक्री अच्छी हो जाये तो वे दूसरी किताब ख़ुद छाप भी देगें और पुस्तक बेचने की ज़िम्मेदारी भी लेगे।उन्होने बताया कि हमारी कवितायें अच्छी हैं पर हर अच्छी चीज़ बिक भी जाये ये ज़रूरी नहीं है।

 


हमने उनसे पूछा ‘’किताब छपवाने मे कितना ख़र्चा आयेगा?’ तो उन्होने कोई सीधा सा उत्तर न देते हुए कहा ‘’ये ख़र्च बहुत सी बातों पर निर्भर करता है जैसे काग़ज और छपाई की गुणवत्ता, किताब के पन्नो की संख्या और आपको कितनी प्रतियाँ छपवानी है, पुस्तक मे चित्र कितने और किस तरह के होंगे वगैरह... ? कम से कम एक हज़ार प्रतियाँ तो छपेंगी ही, जितनी ज़्यादा प्रतियाँ छपेंगी मूल्य उतना ही कम हो जायेगा।‘’

 


किताब छपवाने का जब मन बन ही लिया था तो काग़ज और छपाई की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं कर सकते थे। कवितायें तो सचित्र ही अच्छी लगती हैं। गूगल पर हर तरह के चित्र मिल जाते हैं, पर यह विचार जमा नहीं, सोचा हर कविता के साथ पैंसिल स्कैच लगायेंगे मुख पृष्ट पर रंगीन पेंटिंग और पिछले कवर पर अपना एक तैल चित्र।हमारे परिवार मे किसी को चित्रकला आती नहीं थी, किसी जाने माने चित्रकार से बनवाने मे ख़र्चा बहुत होता, परन्तु हमारी एक मित्र ने समस्या सुलझा दी वो एक ज़रूरतमंद छात्र को ले आईं, जो अच्छा चित्रकार है । वह 100 रु. मे हर कविता से संबधित चित्र और एक एक हज़ार मे अगला और पिछला कवर बनाने को तैयार हो गया।जल्दी ही उसने चित्र बनाकर हमे दे दिये हमने उन्हे फटाफ़ट स्कैन करके अपनी कविताओं के साथ जोड़ दिया, इस काम मे हमारे बच्चों ने भी मदद की। हमारे हिसाब से हमारी पांडुलिपी तैयार थी हम प्रकाशक के पास पंहुच गये उन्होने बताया कि वो उसकी प्रूफ़ रीडिंग करवा देंगे। हमने कई बार जांच करली थी पर उन्होने कहा कि अपने लिखे मे ग़लतियां रह ही जाती हैं यह बहुत ज़रूरी होता है, प्रूफ रीडिंग उन्होने करवा दी और प्रूफ रीडर को हमसे 5000 रु दिलवा दिये।

 


अब प्रकाशक महोदय बोले कि प्रैस मे जाने के लिये pdf फाइल बनवानी पड़ेगी। हमारे PC मे pdf फाइल बनाने की सुविधा नहीं है। हमे एक कंम्पूयटर डिज़ाइनर भी ढूँढना पड़ा, जिसने एक मोटी रक़म लेकर हमे पाण्डुलिपि की pdf फाइल की CD दी जो प्रैस मे जाने को तैयार थी।

 


हमने कभी कुछ कमाया तो था नहीं, कभी कभार किसी पत्रिका से बतौर मानदेय 200- 300 रु मिले हों वो अलग बात है। पतिदेव बिना नोकझोंक हमारा शौक पूरा कर रहे थे, उन्होने सोचा होगा कि पत्नी ने कभी कोई गहने नहीं मांगे उसका ये ही शौक पूरा कर देते हैं।

 


कुछ दिन बाद हमारे पास 1000 सजिल्द ख़ूबसूरत पुस्तकें आ गईं जिसके आवरण पर हमारा नाम चमक रहा था बीनू भटनागर ‘कुमुद’ किताब को हमने ‘प्रवाह’ नाम दिया था। प्रकाशक ने हमे कुछ किताबों के विक्रेताओं के नाम दे दिये थे जहाँ हम ‘प्रवाह’ की प्रतियाँ रख सकते थे पर भुगतान किताबें बिकने के बाद ही होगा, हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था इसलियें हमने यह बात मान ली।पुस्तक विक्रताओं ने कहा कि यदि पुस्तक शो विन्डो मे सजाई जायेगी तो बिकने की अधिक संभावना होगी पर इसके लियें हमे अधिक कमीशन उन्हे देना होगा। हमने यह बात भी मान ली।

 


लगभग 100 किताबें हमने अपने पास रख और उन पर अपने हस्ताक्षर भी कर दिये।अब ‘प्रवाह’ लोकार्पण करना ज़रूरी लग रहा था। पहले ही काफ़ी ख़र्चा हो चुका था, इसलियें हमने अपनी ही सोसायटी के प्राँगण मे लोकार्पण समारोह करने का निश्चय किया।लोकार्पण करने के लियें एक वयोवृद्ध कवि मिल गये जिन्होने हमारा प्रस्ताव तुरन्त स्वीकार कर लिया वैसे भी उन्हे आजकल कोई पूछ नहीं रहा था...। साहित्य जगत के कुछ और मित्रों को भी मेल द्वारा न्योता भेज दिया। निमंत्रण पत्र छपवाने का ख़र्चा बचा लिया। आमतौर पर जलपान के लियें कम लोग आते हैं पर भोजन का न्योता हो तो लोग परिवार सहित आ ही जाते हैं... बात भी ठीक है इतनी दूर से इतना पैट्रोल फूँककर कोई आये तो भोजन तो होना ही चाहिये... चाय बिसकिट मे तो नहीं निबटा सकते!

 


ख़ास रिश्तेदारों को भी नहीं छोड़ सकते थे भले ही उन्हे हमारे लेखन मे कोई दिलचस्पी न हो, घर मे कोई उत्सव करें तो उन्हे बुलाना तो पड़ेगा ही....कुछ पड़ौसियो को भी बुलाना था, इस प्रकार क़रीब दो सौ लोगों के बैठने और भोजन की व्यवस्था करनी थी। समारोह बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया। छोटे छोटे भाषण हुए तभी हम पीछे की तरफ़ गये हमारे कानो मे खुसुर पुसुर पड़ी......... बड़ा बोर हो गये... अब क्या ये किताब भी ख़रीदनी पड़ेगी.... ओ माई गौड ये हिन्दी कौन पढ़ेगा सिर दर्द... खाना जल्दी हो तो फिर चलें.....................

 


किताब किसीने नहीं ख़रीदी जबकि आजकल किसी समारोह मे जाओ तो 500 का शगुन तो कम से कम दिया जाता है किताब की कीमत तो सिर्फ 300 रु थी। विदा करते समय हमने एक एक प्रति सभी परिवारों को दे दी... हम जानते हैं अधिकतर लोग नहीं पढ़ेगे... फिर भी...

 


अब तक हम क़रीब एक लाख के चक्कर मे आ चुके थे...... और दूसरा सपना देख रहे हैं शाल , पान फूल पाने का....... हमे बताया गया है कि यह सपना भी ख़रीदा जा सकता है...... पर बस अब और नहीं.....

 

 

बीनू भटनागर

 

 

 

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