दिलीप तेतरवे
साहब, मैं आपका प्रिय किस्सागो हूं...और अब मैं नई स्टोरी ढालने जा रहा हूं...साथ ही, मैं अपना नाम बदल रहा हूं...क्या रखूं अपना नाम? हां, दिमाग में मुझे अपना नया नाम क्लिक कर गया है-असत्यानंद किस्सागो...जैसा युग वैसा नाम...जिस युग में असत्य का सिक्का चलता हो, उस युग में मुझ जैसा सोलिड किस्सागो सत्य बोल कर, भूख से मरने की कोशिश क्यों करेगा...मैंने सत्य और असत्य पर बहुत शोध किया है, साहब! मेरी एक ताजा रिपोर्ट देखिए-
यह आम धारण बन गई है कि सच बोलने वाले मूर्ख होते हैं और सदा कष्ट में रहते हैं. सच्चाई का व्रत लेने वाले विवादित लोग होते हैं. लोग कहा करते हैं, “जब सब लोग झूठ बोल रहे हों, वहां कोई युधिष्ठिर या कोई देवता सत्यनारायण पैदा हो जाएगा तो उसे पिटना ही पड़ेगा. ज़माने का जुल्म सहना ही पड़ेगा. लोगों के जूते खाने ही पड़ेंगे. अरे, जूता खाना ही है तो चांदी के जूते खाओ और चैन से सो जाओ. कम्बल ओढ़ कर घी का पान करो. साहब, आज कल लोग झूठ बोलने की क्रिया को व्यावहारिक और सही मानते हैं. अगर झूठ रोटी देती है तो झूठ को क्यों न अपनाया जाए? सच बोल कर भूखे मरने वालों पर समाज के लोग फब्तियां कसते हैं और कहते हैं कि वह ट्रूथोफोबिया से ग्रस्त है. बेचारा है. साहब, साहित्य में ट्रूथोफोबिया से संबंधित स्टोरी खूब सराही जा रही हैं. सच्चे लोगों का खूब मजाक उड़ाया जा रहा है...”
साहब, एक दिन शहर के वे लोग, जो सच न बोल पाने के कारण बहुत ही मानसिक दबाव में थे, कुंठा में थे...मुझ किस्सागो को आमंत्रित किया और मुझसे कहा कि मैं एक ऐसी स्टोरी सुनाऊं, जिससे कि उनका मन हलका हो जाए और झूठ बोलने की शक्ति उनको मिले. उनका गिरा हुआ मनोबल ऊंचा हो जाए. उनकी कुंठा दूर हो जाए. मैंने उनकी चुनौती स्वीकार की. मैंने अपनी टाई ढीली की, जुल्फों को एक सिंपल सा झटका दिया, उपस्थित श्रोताओं का जायजा लिया और शुरू हो गया-
साहब, मैं असत्यानंद किस्सागो हूं. अभी जो स्टोरी मैं आपको सुनाने जा रहा हूं, वह सौ प्रतिशत सच है. आप मुझ में विश्वास रखें और इस स्टोरी से सीख ले कर, इस स्टोरी से ऊर्जा ले कर, असत्य का प्रयोग करते हुए जीवन को सफल बनाएं और महानुभावो, आपके मन में कभी भी झूठ बोलते हुए ग्लानि रूपी डायन का प्रवेश न हो...आपको कभी सच न बोल पाने का दुःख न हो. यह स्टोरी इस युग के देवता काल किंकर ने सिर्फ आपके लिए, मुझे सपने में सुनाई थी. वही स्टोरी पेश कर रहा हूं-
साहब, पता नहीं सत्यव्रत को क्या हो गया था. उसे कौन सी बीमारी हो गई थी. वह जिस गली में जाता उस गली का सच बोलने लग जाता. और उस गली के लोगों से पिटता, लहू-लुहान हो जाता. उसे अस्पताल में टांके-सांके पड़ते. सात-आठ दिनों में वह चंगा हो कर, फिर से किसी नई गली में प्रवेश करता और सच बोलने लग जाता. और फिर पिटता...
शायद, वह मानसिक रूप से बीमार पड़ गया था. एक अनुभवी डाक्टर के अनुसार उसे ट्रूथोफोबिया की बीमारी हो गई थी, यानी सच बोलने की भयानक बीमारी हो गई थी. और यह बीमारी लाइलाज थी. उसके मां-बाप अपने बेटे के भविष्य को ले कर, चिंतित रहते और अपने आप से पूछते, “इस सत्यव्रत का क्या होगा?”
वैसे, सत्यव्रत किसी भी गली में घुसने के बाद, गली के लोगों द्वारा पिटाई से बेहोश होने तक, जितने सत्य बोल दिया करता था, वे उसी तरह पूरे शहर में फ़ैल जाते, जैसे कंप्यूटर में वायरस तत्क्षण फ़ैल जाता है. वैसे, अमेरिका में सच के वायरस के फैलाव को रोकने के उद्देश्य से एंटी ट्रुथ सोफ्टवेयर का विकास करने के लिए सौ वैज्ञानिकों का एक ग्रुप बनाया गया था...और वे वैज्ञानिक रात-दिन एक कर एंटी ट्रुथ सोफ्टवेयर बनाने में लगे हुए थे...लेकिन साहब, मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि आपको सच के वायरस से बचने के लिए किसी सॉफ्टवेर की जरूरत नहीं पड़ेगी. मैं अपनी यह स्टोरी ही आपके दिमाग में इम्प्लांट कर दूंगा और सच आपको कभी छू भी नहीं पाएगा और आप सहज भाव में असत्य बोल पाएंगे.
साहब, मैं दवा-दारू से दूर रहने वाला किस्सागो हूं, कोई डाक्टर या मनोचित्सक तो हूं नहीं कि सत्यव्रत की बीमारी के बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ कह पाऊं, लेकिन उसकी बीमारी छूत की बीमारी थी. यह मुझे तब पता चला जब एक मनोचिकित्सक अति उत्साह में सत्यव्रत की बीमारी में दिलचस्पी लेने लग गया. साहब, देखिए कि आगे क्या हाल हुआ, उस मनोचिकित्सक का -
साहब, मनोचिकित्सक उलट बुद्धि जी ने सत्यव्रत के केस को एक चुनौती के रूप में लिया. और वे लग गए उस पर शोध करने. शोध के पूरा होने पर उन्होंने एक संवाददाता सम्मलेन में पत्रकारों से कहा, “सत्यव्रत, को ट्रूथोफोबिया की बीमारी से ग्रस्त करने के लिए उसके गुरु वेद जी और पिता ईश्वर लाल जी पूरी तरह से दोषी हैं. गुरु वेद जी ने उसके दिमाग में यह गलत बात डाल दी कि वही आदमी, आदमी होता है, जिसके हृदय में संवेदना की धारा निरंतर बहती रहती है. और सत्यव्रत ने अपने हृदय में संवेदना की धारा को अविरल बहने दिया. यह इस युग के लिए एक घातक बात थी. अगर आदमी संवेदनशील हो जाएगा तो वह दूसरों के हित में सोचने लगेगा. दूसरों के लिए अपनी कमाई और ऊर्जा व्यय करने लगेगा. अपने स्वार्थ को भूल जाएगा. सच बोलने लगेगा और जीते जी समाप्त हो जाएगा.
साहब, मैं असत्यानंद किस्सागो हूं, फिर भी मैं सत्यव्रत की सच्ची कहानी सुनाऊंगा. मैं सत्यव्रत का इलाज नहीं कर सकता हूं...लेकिन सत्यव्रत को सत्य का गुलाम बनाने में उसके पिता ईश्वर लाल जी किस प्रकार दोषी हैं, यह पहले जान लीजिए-
मनोचिकित्सक उलट बुद्धि ने कहा, “उसके पिता ईश्वर लाल जी ने बचपन से उसे ईश्वर का नाम ले कर डराया-धमकाया और उसे कहा कि सत्य बोलो नहीं तो नरक जाना होगा. नरक में उसको अनेक कष्टों से गुजरना होगा. पिता के प्रभाव में बचपन में ही उसका जीवन दर्शन गलत रास्ते पर चल पड़ा. इस प्रकार, अपने गुरु और पिता के कारण बेचारा सत्यव्रत सत्य का गुलाम हो गया. और गुलामी कैसी भी हो, गुलामी तो गुलामी ही होती है. और इसी गुलामी के कारण सत्यव्रत अपने जीवन में असफल हो गया और उसके लिए पृथ्वी पर ही नरक उतर आया. वह कुंठाग्रस्त हो गया. उसका कुंठाग्रस्त होना बिलकुल स्वाभाविक था.
साहब, मनोचिकित्सक उलट बुद्धि जी ने सत्यव्रत को सच बोलने की भयानक बीमारी से मुक्त करने के लिए एक वर्ष तक उसकी मुफ्त काउंसिलिंग करने की घोषणा भी कर दी. और इस काउंसिलिंग का क्या उत्तम प्रभाव हुआ, अब वह देखिए-
साहब, मैं तो शक्की किस्सागो हूं और मुझे शक है कि शायद, उलट बुद्धि जी भी संवेदना के शिकार हो गए थे. खैर, उन्होंने सत्यव्रत की काउंसिलिंग शुरू की. एक साल के बाद, उलट बुद्धि जी स्वयं ट्रूथोफोबिया के शिकार हो गए. और इस प्रकार शहर में इस दिल दहलाने वाली बीमारी से दो-दो व्यक्ति पीड़ित हो गए. शहर के शरीफ लोगों का जीवन इन दोनों के कारण दहशत से भर गया था. लेकिन, ईश्वर की कृपा से, जल्दी ही उलट बुद्धि जी का निधन हृदय गति रुक जाने से हो गया और वे बड़ी जल्दी ही सत्य बोलने की बीमारी से मुक्ति पा गए. फिर शहर में इस बीमारी से ग्रस्त एक ही रोगी रह गया और वह था सत्यव्रत. उसने फिर से गलियों में जाने और सच बोलने का सिलसिला शुरू कर दिया.
साहब, मैं तो हल्का-फुल्का किस्सागो हूं. इसलिए मैं फुदक-फुदक कर सत्यव्रत का सच्चा हिसाब रख रहा था. साहब, सत्यव्रत का जैसा प्रभाव मैंने देखा और शहर के लोगों ने उससे बचाव के जो तरीके अपनाए, उसे जैसा का तैसा आपको सुना रहा हूं...एक बात और, जो बात दिखती है, वह सच ही हो, यह जरूरी नहीं है...खैर, स्टोरी सुनिए-
शहर की कुल सौ गन्दी गलियों के हेवी टैक्स पेयर लोग सचेत हो गए थे. गलियों के निवासियों ने अपनी-अपनी गली में गलत काम करना त्याग दिया था. वे किसी रमणीय स्थल की यात्रा पर चले जाते, वहीं गलत-सलत काम करते और सकुशल सफ़ेद, वस्त्र में, वापस अपनी गली में लौट आते और इस प्रकार उनका सच उनकी गली में नहीं बहता-ऐसा उनका विश्वास था, लेकिन यह विश्वास गलत था. वे सत्यव्रत के रडार से बच नहीं पाते थे, क्योंकि वह तो हर आदमी का सच उसकी गली में प्रवेश करते ही जान लेता था.
साहब, गली के लोगों का मानना था कि सत्य जेल का रास्ता खोलता है और झूठ स्वर्ग का द्वार- यही जीवन का व्यावहारिक दर्शन है. किसी शरीफ आदमी का सत्य कभी भी, किसी भी कीमत पर उजागर नहीं होना चाहिए और हर शरीफ आदमी का असत्य ही उसकी पहचान होनी चाहिए. प्रत्येक गली के लोगों ने अपनी-अपनी गली में रात-दिन चौकसी बढ़ा दी थी ताकि गलियों में प्रवेश के पहले ही सत्यव्रत को पीट-पाट कर अस्पताल पहुंचाया जा सके और वह सत्य उगल न पाए.
साहब, मैं तो साधारण किस्सागो हूं, और बात ऊंचे लोगों की कर रहा हूं, विद्वानों की कर रहा हूं...अगर श्रोताओं में कोई ऐसे लोग हों तो क्षमा करेंगे...साहब, अब मैं आप सब की आज्ञा ले कर स्टोरी को फिर से स्टार्ट करता हूं-
हर गली के लोग एक ही तरह से सोचते थे और एक ही तरह से काम करते थे. वे धन, शक्ति, काम, क्रोध, मद, लोभ आदि की शक्ति से प्रेरित, आंखें मूंद कर, अपने स्वार्थ के पीछे दिन-रात भागते रहते और इस प्रक्रिया में सफलता उनके कदम को चूमती थी. और जो लोग सत्य के साथ थे और स्वार्थ से परे थे, वे दुनिया में रहने लायक नहीं रह गए थे. उनको घर नहीं झोंपड़ी नसीब होती थी, एक बदबूदार जिंदगी नसीब होती थी.
साहब, मैं तो फंटास्टिक शर्महीन किस्सागो हूं और मुझे यह कहते शर्म नहीं है कि गली के लोग बहुत ही समझदार और व्यावहारिक थे. वे हर कुछ अपने लाभ की दृष्टि से देखते थे. और लाभ कमाना ही तो उनके जीवन का उद्देश्य रह गया था...अब जरा उनकी व्यावहारिकता देखिए-
साहब, थेथर सत्यव्रत किसी भी गली में चौकसी पर लगे दस्ते को अक्सर धत्ता बता कर, प्रवेश कर जाता और सच बोलने लगता और सच बोलते हुए कुछ ही देर बाद गली के फौलादी दस्ते द्वारा पकड़ा जाता. उसकी पिटाई शुरू हो जाती. लेकिन, गली के निवासी उसे जान से नहीं मारते थे. इसके पीछे उनका नेक स्वार्थ था. वे दूसरी गली के सत्य में दिलचस्पी रखते थे. बखूबी रखते थे. वे कहते, “अरे अपनी गली में उसने जो कचरा किया सो किया, हमें उसके माध्यम से दूसरी गली का सच जान लेना जरूरी है ताकि हम दूसरी गली के लोगों के सामने सिर उठा कर चल सकें...अपने सच के सामने उनके सच को रख कर, अपने सच के लिए कफ़न या चादर का इंतजाम कर सकें...इस लिए हमें सत्यव्रत को जान से नहीं मारना है...उसे दूसरी गली में मार पीट कर धकेल देना है और दूसरी गलियों के सत्य का संकलन कर लेना है- बड़े ही प्रैक्टिकल और नेक विचार थे उनके...”
साहब, मैं तो घड़ीदार किस्सागो हूं. कभी-कभी स्टोरी सुनाते हुए मुझे घड़ी की सूई को आगे या पीछे करना पड़ता है...सो अभी घड़ी की सुई को बैकवार्ड चला कर, चलते हैं सत्यव्रत के जीवन के उस काल की ओर जिसमें किसी सुंदरी के प्रेम को पाने की ललक थी, चाहत थी. सत्यव्रत के जीवन का वह पार्ट भी देखिए-
साहब, सत्यव्रत कभी अपनी चुलबुली सहपाठिनी मिस कोयल के प्रेम में दीवाना था. मतवाला था. मजनू बन गया था. वह मिस कोयल पर जान छिड़कता था. वह रात-दिन मिस कोयल के बारे में सोचता रहता था. उसकी एक सपने सोते जागते देखता था. मिस कोयल जब भी उसके पास से अपनी पायल खनखनाती हुई निकलती, उसका हृदय फ्रंटियर मेल बन जाता. घर में उसके सामने उसकी मां अति स्वादिष्ट भोजन परोस कर रख देती. वह थाली में मिस पायल को देखने लगता और भोजन, थाली में पड़ा-पड़ा ठंडा हो जाता. ऐसे ही मूड में जब एक बार थाली के सामने सत्यव्रत बैठा था तो मिस कोयल अपनी पायल खनखनाती-झनझनाती हुई पहुंची. उसने सत्यव्रत से पूछा, “अरे, ओ मिस्टर, तुम्हारे सामने भोजन पड़ा हुआ है और तुम बगुले की तरह पानी की किस मछली पर ध्यान लगाए बैठे हो? तुम्हारी नजर किस मछली पर है? डेजी, किट्टी, सिट्टी...किस चुड़ैल पर तेरी नजर है?”
साहब, प्रेम की गंगा में गहरे डूबे सत्यव्रत ने मिस कोयल की बातों का कुछ भी जवाब नहीं दिया. तभी सत्यव्रत की मां आई और उसने आंसू ढलकाते हुए मिस कोयल को बताया, “पता नहीं इसके सिर पर कौन सी डायन सवार हो गई है...न भोजन करता है, न किसी से बात करता है...कभी छत की और टकटकी लगाए देखता रहता है...कभी ठंडी तो कभी गरम आहें भरता है...इसका पढ़ना-लिखना तो चूल्हे में चला गया.”
साहब, शर्म से लाल पड़ गई मिस कोयल ने कहा, “आंटी जी, मैं भी इसी तरह की स्थिति से किसी कलमुंहे के कारण गुजर चुकी हूं...इस बीमारी को मैं जान गई हूं...मैं यह भी समझ गई हूं कि प्रेमिका के इशारे न समझने वाले आशिक त्याग देने योग्य होते हैं...और आंटी इसके पीछे कोई डायन नहीं पड़ी लगती है...यह तो खुद अपने आप का दुश्मन लगता है...यह कायर है और शायद अपने दिल की बात किसी के सामने रख नहीं पा रहा है, इसलिए इस मुए की यह हालत है...खैर, आंटी जी, अभी मैं सत्यव्रत की इसी कमजोरी को देखते-परखते हुए उसे राखी बांधने आई हूं...आप मुझे इसके सामने थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ दें तो शायद मैं इनकी समाधि तोड़ पाऊं...” मिस कोयल की प्रार्थना सुन कर सत्यव्रत की मां अपने कमरे में चली गई.
साहब, मैं तो प्रेमी किस्सागो हूं, लेकिन कभी जेब में इतने पैसे हुए नहीं कि मैं स्वयं इश्क-विश्क की सोचूं और समझूं...और उसमें कुछ इंवेस्ट करूं...बस एक बार मैंने इश्क करने की गलती से मिस्टेक से की थी. पर मेरी बात छोड़ दीजिए...और साहब, मिस कोयल और सत्यव्रत के इश्क-विश्क के बारे में मैंने जो सुना उसे ही सुनिए-
साहब, मिस कोयल ने अपनी पायल जरा जोर से बजाई. पायल की झंकार सुन कर, सत्यव्रत ने आखें पूर्ववत बंद किए, यह शुभ वचन कहा-
“यह पायल की झंकार तो मेरे हृदय रूपी टेपरिकार्डर में अंकित है. यह झंकार तो मिस कोयल के सुडौल चिकने पैरों की खनकती-झनकती पायल की है, जिसे मैं चोरी-चुपके निहारता रहता हूं...मैं चाहता हूं कि वह और छोटी स्कर्ट और छोटी स्कर्ट पहने, और मैं खो जाऊं उसके मूर्तिरूपेण पैरों में...उसके दो पैर नहीं प्रेम के दो पेड़ हैं...लेकिन, मेरे दिल रूपी टेपरिकार्डर को किसने ऑन किया? अगर कोई मेरे दिल से निकलती पायल की इस झंकार को सुन लेगा तो मिस कोयल और मेरे बीच क्या संबंध है, यह सभी लोग जान जाएंगे. मैं मिस कोयल के बारे में क्या-क्या सोचता रहता हूं, क्या-क्या कल्पना करता रहता हूं, वह जग जाहिर हो जाएगा. अरे, मैंने तो अपने कल्पना लोक में उसके साथ मधु-रात्रि भी मना ली है...मुझे तो बहुत शर्म आ रही है...अपनी कल्पना पर...”
साहब, मैं अहमक किस्सागो होते हुए भी कह सकता हूं कि सत्यव्रत ने अपने प्रेम का अपनी पहली प्रेमिका के सामने कम से कम नब्बे प्रतिशत इजहार कर दिया था. लेकिन, मिस कोयल बहुत ही गुस्से में थी. उसने अपने हाथ की राखी उसके सिर पर दे मारी और उसके घर से वह पायल खनकाती हुई निकल गई...
साहब, जब सत्यव्रत ने आंखें खोलीं तब तक मिस कोयल जा चुकी थी और वह अपने सिर से खाने की मेज पर गिर पड़ी राखी को देख कर, शर्मिंदा हो रहा था. लेकिन, तभी उसके सिक्स्थ सेन्स ने काम करना शुरू कर दिया-
“अभी मिस कोयल ने मुझे राखी पहनाई कहां है. कल मैं उसके सामने अपने पवित्र अघोषित प्रेम की घोषणा कर दूंगा और मैंने जो कल्पना उसके संबंध में की है, उसके लिए उससे क्षमा मांग लूंगा. हाय, मैंने उसके साथ, उसे बिना बताए ही मधु-रात्रि मना ली...मैं तो बिल्कुल पापी हूं...”
साहब, मैं विचारक किस्सागो हूं और हर दिन समाज में घटती स्टोरी की लड़ियां बनाता रहता हूं. लेकिन, कभी मैंने ऐसा प्रेमी नहीं देखा, जिसने अपनी प्रेमिका के संबंध में की गई कल्पना के आलोक में अपनी प्रेमिका से क्षमा मांगने का निर्णय लिया हो. यहां तो लोग बलात्कार करने के बाद, उसे अपना जायज कदम ठहराने के लिए, बलत्कृत लड़की के चरित्र पर ही हमला कर देते हैं. साहब, मुझे इस दृष्टि से सत्यव्रत थोड़ा पागल लगा या मुझे लगा कि ओवर रिएक्ट कर रहा था. खैर, अपने निश्चय के अनुसार सत्यव्रत मिस कोयल से मिलने के लिए मिलन पार्क में पहुंचा. अब देखिए दोनों के बीच क्या बातें हुईं-
“मिस कोयल, यह लाल गुलाब सिर्फ तुम्हारे लिए लाया हूं, इसे स्वीकार करो.”
“मैं क्यों स्वीकार करूं यह बासी लाल फूल?”
“मिस कोयल, मैं तुमसे प्रेम करता हूं और लाल गुलाब किसी लड़की को पार्क में देना प्रेम का पहला सिग्नल है.”
“लेकिन, तुम्हारे सिग्नल देने के पूर्व ही गाड़ी तो निकल गई! कान खोल कर सुन लो, मैं तुमसे प्रेम नहीं करती हूं...मैंने ट्रैक चेंज कर लिया है. मैंने प्रेम की मंडी में जो नया शिकार किया है, उसे मेरी पायल की झंकार फटाफट समझ में आ जाती है. वह है प्रेम गली सत्तर का बड़ी जेब वाला असत्यवान, पुत्र नेताजी दोहक प्रसाद...वह मेरे सपने नहीं देखता, बस मेरे सपने पूरे करने के लिए एटीएम जैसा काम करता है...वह मेरे नाम पर आहें नहीं भरता, बल्कि मेरे लिए गीतों भरी रात आयोजित करता है...वह मुझे याद करते हुए अपने घर की छत नहीं देखता, बल्कि जीवन का रिस्क ले कर मेरी छत पर चला आता है...वह मुझे रात-दिन क्विक सेवा प्रदान करता है...ऐसा निराला और चोखा है मेरा नया फ्रेंड, कान और भौं कुंडलधारी असत्यवान...तुम्हारी तरह वह दिन में सपने नहीं देखता और कल्पना के लोक में जा कर मुझसे नहीं मिलता बल्कि हकीकत में हमेशा मेरे करीब होता है...उसके चार-चार गर्ल फ्रेंड हैं...और वह सब को मेंटेन करता है...तुम्हारी तरह वह लड़कियों की भाषा से अनजान नहीं है...”
“मिस कोयल, एक बार मेरे लिए तुम अपने हृदय की धड़कनों को सुनो...तुम अपने हृदय की धड़कनों को साफ़-साफ़ सुन सको, इस उद्देश्य से मैं अपने पशु डाक्टर भाई का आला चुरा कर लाया हूं...साथ ही, धड़कनों को डिकोड करने वाला यह विशेष वेदेशी मशीन भी साथ लाया हूं...प्लीज मेरे लिए...अपने दिल की धड़कनों को सुनो, उनको डिकोड करो, वे जरूर मेरे नाम का जाप कर रहीं होंगीं...”
“अरे, मूर्ख दिल-विल कुछ भी नहीं सुनता-सोचता है...सुनने, सोचने और समझने का सारा काम तो दिमाग करता है...तुम तो मेरी पायल की आवाज नहीं सुन सके और चले हो मुझसे प्रेम का नाटक करने. देखो, तुमने जो पैसे मुझे चाट-वाट खिलाने और गिफ्ट-सिफ्ट देने में खर्च किए, उसके लिए धन्यवाद और आगे मुझसे मिलने की कोशिश मत करना. यह तुम्हारे फायदे लिए कह रहा हूं. याद रखना, मेरा नया प्रेमी गजराज सिंह बॉक्सर है...”
साहब, मैं फास्ट गोइंग किस्सागो हूं और मैंने भी, ज़माने के फास्ट लाइफ में, प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्रेम के टूटने का दर्द देखा है. सबसे बुरा तो प्रथम प्रेम के टूटने का दर्द होता है और माडर्न वर्ल्ड में सत्यव्रत जैसे प्रेमी को लड़कियां लूजर कह कर अपमानित करती हैं. उसे ब्लैक लिस्टेड कर देती हैं और लूजर के लिए नई कहावत है-जो एक की नजर से गिरा, वह सबकी नजर से गिरा...”
साहब, अपने प्रथम प्रेम के टूटने पर सत्यव्रत ने बहुत करीने से सोचा, “असल में बात यह है कि मुझे किसी के हृदय में छिपे सत्य को पढ़ना नहीं आता है. मुझे ह्रदय में कैद सत्य को पढ़ने की कला सीखनी होगी और फिर मैं अपनी दूसरी प्रेमिका की तलाश में शहर की हर गली में जाऊंगा. मैं इस कला को सीखने के लिए हिमालय की किसी ऊंची चोटी पर जाऊंगा और हठ योग करूंगा...घनघोर तपस्या करूंगा. भगवान् से वरदान लूंगा कि मुझे हर गली के लोगों का सत्य दिख जाए...और यह वरदान मुझे जैसे ही प्राप्त हो जाएगा, मैं अपनी द्वितीय प्रेमिका और उसके परिवार के लोगों का हृदय आसानी से पढ़ पाऊंगा, समझ पाऊंगा...”
साहब, मैं प्रेम रोग से डरने वाला किस्सागो हूं. मैं प्रेम-व्रेम के बारे में ज्यादा नहीं जानता हूं, लेकिन मेरे दादा ने मुझे बताया था कि घायल प्रेमी और घायल बाघ में, तुलनात्मक रूप से घायल प्रेमी कम ताकतवर लेकिन ज्यदा घातक होता है. इसके बाद, घायल प्रेमी सत्यव्रत हिमालय की एक चोटी पर घनघोर तपस्या में लीन हो गया. इन्द्र का लोक डोलने लगा, कांपने लगा. इंद्र के दरबार की अप्सराओं ने भयवश नृत्य का कार्यक्रम पेश करना बंद कर दिया.
देवताओं को रिफ्रेश होने का एक मात्र कार्यक्रम भी बंद हो गया था. इंद्र बहुत दुखित हो उठे थे. उन्होंने समस्त देवताओं के साथ मिल कर ईश्वर की प्राथना की, “हे ईश्वर, घायल प्रेमी सत्यव्रत ने अपनी तपस्या से मेरे इंद्र लोक को प्रकंपित कर दिया है. मेरे दरबार की अप्सराएं नृत्य नहीं कर पा रहीं हैं और उनके बिना काम किए, यानी बिना नृत्य पेश किए, मुझे अपने राज कोष से उनको वेतन देना पड़ रहा है. सीएजी श्रीचित्रगुप्त अपनी रिपोर्ट में मेरे ऊपर विपरीत टिप्पणी कर सकते हैं...उनके द्वारा मुझ पर भ्रष्टाचार का भयानक आरोप लग जा सकता है. उनके पास शून्य की खान है और वे बिना हिचके कुछ अंकों के आगे शून्य की लंबी लाइन लगा देते हैं और भ्रष्टाचार का खतरनाक मूल्यांकन कर सकते हैं. वर्ल्ड रिकार्ड बना सकते हैं. उनके द्वारा निर्धारित भ्रष्टाचारी अंकों पर विपक्ष के नेता स्वामी राक्षसानंद घनघोर राजनीति शुरू कर सकते हैं. इंद्र पद से मेरे त्यागपत्र की मांग कर सकते हैं...हे भगवन! आप हमें सत्यव्रत रूपी मुसीबत से मुक्ति दिलाएं...”
इन्द्र सहित समस्त देवताओं की प्रार्थना को सुन कर अनाम भगवान सत्यव्रत के सामने उपस्थित हुए और कहा, ‘हे पुत्र सत्यव्रत, तू अपनी मनोकामना मुझे बता दे...”
“हे भगवान, पहले आप मुझे अपनी पहचान बताएं. आप कौन से भगवान हैं. हमारी पृथ्वी पर अनेक भगवानों की चर्चा होती रहती है और मैं कन्फ्यूज्ड हो जाता हूं...साथ ही, आप मुझे अपने पावर्स और बैंक एकाउंट के बारे में बता दें, तब मैं आपसे निश्चिन्त हो कर वरदान मांगूंगा...मैं बिना टारगेट देखे फायर नहीं करना चाहता हूं...मैंने वरदान देने वाले भगवानों की कथा पढ़ी है...इसमें कभी-कभी घपला हो जाता है और वरदान पाने वाले के लिए वरदान ही शाप बन जाता है और बेमौत मारा जाता है...”
सत्यव्रत का तर्क सुन कर, अनाम भगवान कुपित हो उठे और बोले, “अरे मूढ़, अब मैं तुमको वरदान नहीं दूंगा. मैं तुमको श्राप दे रहा हूं- जा, तू जिस गली में प्रवेश करेगा, उस गली के लोगों का सच तू जान जाएगा और उस सच को तू सबके सामने उजागर करने लगेगा. और इस कारण तू हर गली में पिटेगा. किन्तु तू ने कठोर तपस्या की है, इस लिए पिटाई से तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी.”
साहब, मैं तो एक छुटभैय्या किस्सागो हूं...लेकिन, जैसा मैंने जाना वही बांच रहा हूं...देखिए, श्राप पा कर सत्यव्रत की क्या सुन्दर प्रतिक्रिया थी...उसकी प्रतिक्रिया बिल्कुल निराली थी...ऐतिहासिक थी...अजीब थी...अचंभित करनेवाली थी-
“हे अनाम भगवान जी, आपने जो श्रेष्ठ श्राप मुझे कृपा कर दिया है, वही मैं वरदान में आपसे मांगने वाला था. आप धन्य हैं. अब मैं आपके द्वारा दिए गए श्राप से शक्ति युक्त हो कर, अपने शहर की हर गली में अपनी दूसरी सच्ची प्रेमिका की तलाश करूंगा...आपको शतकोटि प्रणाम!”
साहब, मैं भाग्य वाचन करने वाला किस्सागो नहीं हूं, लेकिन मुझे लग रहा है कि श्राप से शक्ति संपन्न सत्यव्रत अपने अभियान में सफल हो जाएगा. उसे इस युग में भी दूसरी सच्ची प्रेमिका मिल जाएगी. और साहब, इसी श्राप से युक्त होने के बाद सत्यव्रत गलियों में जाने लगा और पिटने लगा. उसे पिता और गुरु के कारण सत्य बोलने की बीमारी नहीं लगी, यह बात सिर्फ मैं जानता हूं और अब आप जान रहे हैं...उसने सच बोलने की बीमारी तपस्या कर, श्राप रूप में अर्जित की और इस बीमारी से ग्रस्त हो कर वह बहुत गदगद हो गया था.
साहब, सत्यव्रत ने निन्यानवे गलियों का मार्मिक दौरा कर लिया था, लेकिन उसे उसके जीवन की दूसरी सच्ची प्रेमिका नहीं मिल पाई थी. साहब, मैं तो तिनके के सामान किस्सागो हूं...मेरा धैर्य तिनके की तरह हलकी हवा के झोंके से उड़ जाता है...मुझमें सत्यव्रत जैसा धैर्य होता तो मैं भी आज शादी-सुदा होता...खैर, अपनी किस्मत को कोसना छोड़ कर मैं स्टोरी को आगे बढ़ाता हूं-
सत्यव्रत ने सौंवी गली में प्रवेश करने की योजना बना डाली. यह सौंवी गली बहुत ही खतरनाक गली थी. लोग इसे मौत की गली भी कहते थे. लेकिन, प्रेमी तो आग की गली में जाने से नहीं डरते हैं. फिर, सत्यव्रत तो श्राप की शक्ति से युक्त था और गली में उसकी मौत भी अनाम भगवान की कृपा से प्रतिबंधित थी. वह सौंवीं गली में प्रवेश करने से क्यों डरता? वह कोई आम आदमी या पुलिस थोड़े था कि वह सौंवी गली के दादा गलादबोच से डर जाता. उसने अपनी सौंवी गली की यात्रा धूमधाम से नरक चौराहे से शुरू की. कवि कामुकानन्द जी ने हरी झंडी दिखा कर, सत्यव्रत को सौंवी गली में जाने का आशीष दिया.
साहब, सौवीं गली के प्रवेश द्वार पर ही दादा गलादबोच जी के पट्ठों ने सत्यव्रत को धर दबोचा और उसके मुंह पर टेप लगा दिया. फिर लगे उसकी धुनाई करने. उसकी धुनाई होते देख कर, गली से बलिष्ठ लड़कियों का एक झुण्ड निकला. लड़कियों ने दादा गलादबोच जी के पट्ठों पर आक्रमण कर दिया. एक लड़की ने सरकारी मुलाजिमों की कृपा से, वर्षों से खराब पड़े चापाकल के हैंडिल से दादा गलादबोच जी के दो पट्ठों को पीट कर भूलुंठित कर दिया. सारे पट्ठे भाग निकले. लड़कियों ने सत्यव्रत के मुंह पर लगे टेप को हटा दिया और कहा, “परम प्रिय सत्यव्रत, तुम्हारा हमारी गली में स्वागत हैं.”
साहब, सत्यव्रत तो आश्चर्य के सागर में मछली कि तरह डुबकियां लगा रहा था. लड़कियों की वीरता को देख कर, सत्यव्रत हैरान था...यह सिचुएशन उसके लिए बिल्कुल अनूठी सिचुएशन थी. उसने मन ही मन सोचा, “इस गली की लड़कियों ने, मेरे लिए दादा के पट्ठों की ठुकाई कर दी. मुझे फ्रीडम ऑफ स्पीच यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुविधा दी. ये लड़कियां तो सचमुच कमाल की हैं और लोकतंत्र तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायती हैं. काल की तरह बलिष्ठ हैं. पुरुषों से श्रेष्ठ हैं...और अब, इस गली की लड़कियों को क्या मैं बहन कह कर संबोधित करूं? अगर मैं उनको बहन कह कर संबोधित करता हूं तो मेरे पास एक ही विकल्प रह जाएगा कि मैं संन्यास ले लूं...नहीं मैं न तो उनको बहन कहूंगा और न मैं उनसे बात ही करूंगा...मैं अब यहां से भाग चलूं तो मेरे लिए उत्तम होगा...इनमें से मैंने किसी को अपनी प्रेमिका के रूप में पा भी लिया तो विवाह के बाद मेरी हड्डियों की क्या हालत होगी, मैं कह नहीं सकता हूं...” और यह कर सत्यव्रत उस गली से विपरीत दिशा में लगभग दौड़ता हुआ चल पड़ा.
साहब, मैं तो निर्मोही किस्सागो हूं...फिर भी मैं सत्यवत के भाग्य पर रो पड़ा. अब उसके सामने आजीवन कुंवारा रहने की स्थिति थी. आजाद रहने की स्थिति थी. बेलगाम रहने की स्थिति थी. और इस युग में किस पुरुष को बेलगाम रहने से बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता है...समाज की हस्तियां ऐसे पुरुष को अनुभवहीन मानती हैं और उसके आगे घास नहीं डालतीं हैं...श्रेष्ठ पुरुष तो वही होता है जो लगाम में रहते हुए, बेलगाम होने की योग्यता रखता हो, जैसे अश्लिलानंद बाघवेंद्र, जैसे कवि कामुकानन्द जी...दोनों अनेक बार विवाह करने के बाद भी यहां वहां चोंच भिड़ाते रहते हैं...साहब, अब देखिए, आगे सत्यव्रत को मिले श्राप का कमाल-
सत्यव्रत को गली की विपरीत दिशा में जाते देख कर, लड़कियां उसके पीछे दौड़ पडीं. उनमें से एक धाविका पवनिका ने सत्यव्रत को अपनी मजबूत बाहों में दबोच कर, अपनी सहेलियों से कहा, “हे सखियो, अब यह सत्यव्रत सात जनम तक मेरी बाहों से भाग कर नहीं जा सकता है. मैं इसे अपनी बाहों में दबोचा कर, गली में उसी प्रकार प्रवेश करूंगी जैसे बाली ने रावण को अपनी बांह में दबोच कर उसे लंबी यात्रा कराई थी.”
साहब, यह तो इस किस्सागो के लिए चमत्कार के सामान था...पवनिका की बाहों में कैद, सत्यव्रत ने ऊंची मगर प्रेम पूरित आवाज में कहा, “हे पवनिका, मैं भी तुम्हारी बाहों से अगले सात जनम तक मुक्त नहीं होना चाहता हूं. मैं तुम्हारी ही खोज कर रहा था...मुझे बस दो पल के लिए अपनी बलिष्ठ बाहों से मुक्त करो ताकि मैं अनाम भगवान से एक छोटी सी मगर प्रैक्टिकल प्रार्थना कर सकूं...”
साहब, मैं तो किस्सागो हो कर भी इस सिचुअशन पर हतप्रभ था...देखिए, प्रेम के बोल से आनंदित पवनिका ने क्या कहा-
“हे सत्यव्रत, तुम अनाम भगवान से प्रार्थना कर लो...मैं तुमको धरती पर उतार रही हूं, सिर्फ और सिर्फ अपने लिए...”
साहब, मैं तो आप लोगों की दया से किस्सागो हूं...अब क्या बताऊं, सत्यव्रत ने धीमे स्वर में जो प्रार्थना की, उसे सिर्फ मैं ही सुना पाया-
“हे अनाम भगवान, आपको शत कोटि प्रणाम...आपके द्वारा दिया गया श्राप मेरे लिए शुभ सिद्ध हुआ और उसने मेरे अभियान को सफल बना दिया...अब मुझे इस श्राप का लाभ नहीं चाहिए...कृपा कर यह उत्तम श्राप वापस ले लें ताकि मैं भी आम लोगों की तरह काल के अनुरूप सत्य या असत्य बोल सकूं और अन्य विवाहित पुरुषों की तरह अनेक कोमलांगियों के साथ आखें चार कर सकूं...व्यावहारिक जीवन जी सकूं, जैसे साहित्यकार अश्लिलानंद बाघवेंद्र और कवि कामुकानन्द जी रसिक जीवन जीते हैं...कितना उन्मुक्त हैं...अपराध बोध से हजारों मील दूर...बस गिनती गिनते हैं कि जीवन में कितनी कलियां आईं और कितनी गईं...मुझे अपराध बोध से मुक्त जीवन चाहिए...मैं गन्दी गलियों के निवासियों की तरह अपने सत्य से डर कर नहीं जीना चाहता हूं...”
अनाम भगवान ने कहा, “एवमस्तु! मैं कलियुग में असत्य बोलने और अधिकाधिक प्रेम करने के अधिकार से, स्त्री या पुरुष, किसी को भी वंचित नहीं करना चाहता हूं...वे अनेकानेक प्रेम कांडों के नायक-नायिका बनें...उन पर फिल्मों का निर्माण हो...नमकीन-मीठी फ़िल्में बनें...जाओ और युगानुरूप आचरण करते हुए जीवन-यापन करो...”