गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
विश्व में शांति की बहाली को लेकर समझदार लोग बेहद बेचैन हैं कि किस प्रकार
विश्व में अमन बहाल हो ? चीनी राष्ट्रपति के भारत आगमन के वक़्त तो अचानक
मानों चिंतन और चर्चा को पंख लग गए . जिधर देखिये उधर चीन की विस्तारवादी
नीति के कारण प्रसूते सीमाई विवाद के चलते व्यवसायिक अंतर्संबंधों को
संदर्भित करते हुए चर्चाओं में खूब ऊर्ज़ा खर्च की जा रही है .
हम भारतीयों की एक आदत है कि हम किसी मुद्दे को या तो सहज स्वीकारते हैं या एकदम सिरे से खारिज़ कर देते हैं. वास्तव में आज़कल जो भी वैचारिक रूप से परोसा जा रहा है उसे पूरा परिपक्व तो कहा नहीं जा सकता. आप जानते ही हैं कि जिस तरह अधपका भोजन शरीर के लिये फ़ायदेमंद नहीं होता ठीक उसी तरह संदर्भ और समझ विहीन वार्ताएं मानस के लिये . तो फ़िर इतना वैचारिक समर क्यों .. ? इस बिंदु की पड़ताल से पता चला कि बहस कराने वाला एक ऐसे बाज़ार का हिस्सा है जो सूचनाओं के आधार पर अथवा सूचनाओं (समाचारों को लेकर ) एक प्रोग्राम प्रस्तुत कर रहा होता है. उसे इस बात से कोई लेना देना नहीं कि संवादों के परिणाम क्या हो सकते हैं.
बाज़ार का विरोध करने वाले लोग, सांस्कृतिक संरचनाओं की बखिया उधेड़ने वाले
लोग, सियासत, अर्थशास्त्र, सामाजिक मुद्दों पर चिंतन हेतु आधिकारिक योग्यता
रखने वाले लोग बहुतायत में उन जगहों पर काम कर रहे हैं जहां ऐसी बहसें
होतीं हैं. कई बार तो वार्ताएं अखाड़ों का स्वरूप ले लेतीं हैं.
चलिये चीन की जीवनशैली पर विचार करें तो हम पाते हैं कि वहां विकास हमसे
बेहतर हुआ है. और जापान भी हमसे तेज़ गति से गतिमान है. जिसका श्रेय केवल
वहां के लोगों में काम करने की असाधारण क्षमता को जाता है. विकास की बोली
भाषा से भी अपरिचित हैं अगर थोड़ा जानते भी हैं तो सिर्फ़ ये कि सरकार की
व्यस्था क्या है.. सरकार हमारे लिये क्या करेगी , सरकार को ये करना चाहिये
वो करना चाहिये वगैरा वगैरा. लेकिन हम घर का कचरा सड़क पर फ़ैंक सरकारी
सफ़ाई व्यवस्था के न होते ही मीडिया के सामने रोते झीखते हैं अथवा घर बैठकर
कोसतें हैं व्यवस्था को . मीडिया जो सूचनाओं का बाज़ार है उसे अपनी शैली
में सामने ले आता है. बात इस हद तक उत्तम है कि मीडिया अपना काम कर देता है
पर हम .. हम तो अपनी आदत से बाज़ नहीं आते हमको सदा ही घर साफ़ रखने और
सड़क गंदी करने का वंशानुगत अभ्यास है. शायद ही कुछ गांव ऐसे मिलेंगें जहां
शौचालयों को स्टोर रूम की तरह स्तेमाल न किया जा रहा हो. सुधि पाठको अभी
हमें विकास की भाषा समझनी है न कि समझ विहीन वार्ताओं में शरीक होना है..
चलो गांधी जयंति नज़दीक आ रही है... जुट जाएं कुछ अच्छा करने के लिये
स्वच्छता को ही आत्मसात करने की कोशिश तो करें .. शायद विकास गाथा यहीं से
लिख पाएं हम...........